Saturday, August 30, 2025

Book - महान भारतीय संत भाग 1 - त्रैलंग स्वामी

 

महान भारतीय संत

भाग 1

त्रैलंग स्वामी

शिव के अवतार की जीवनी

लेखक: जी डी पाण्डेय

प्रथम संस्करण : 2025 

कॉपीराइट © 2025 जी. डी. पाण्डेय 

सर्वाधिकार सुरक्षित। 

इस पुस्तक का कोई भी अंश, किसी भी रूप, माध्यम या तकनीक — चाहे प्रिंट, डिजिटल, ऑडियो या वीडियो — लेखक की पूर्व लिखित अनुमति के बिना पुनः प्रस्तुत, संग्रहीत या प्रसारित नहीं किया जा सकता। 

यह पुस्तक केवल व्यक्तिगत, शैक्षिक एवं आध्यात्मिक उपयोग हेतु है।

समर्पण

यह ग्रंथ उन सभी

साधकों, श्रद्धालुओं और सत्य-प्रेमी आत्माओं को समर्पित है,

जो जीवन की अनंत यात्रा में
अडिग संकल्प और निर्मल हृदय के साथ
परम सत्य की खोज में निरंतर अग्रसर हैं।

उन चरणों में अर्पित,

जिनसे मानवता ने करुणा, त्याग और आत्मज्ञान की ज्योति पाई।

त्रैलंग स्वामी के अद्भुत जीवन और उपदेश
उन सभी के पथ को आलोकित करें
जो आत्मा की मुक्ति और ईश्वर के साक्षात्कार के लिए जीवन को एक साधना बना चुके हैं।


 

प्रस्तावना

भारतीय अध्यात्म के विराट आकाश में अनेक संत, महात्मा और योगी ऐसे हुए हैं, जिनकी जीवन-गाथा केवल प्रेरणा ही नहीं, बल्कि आत्मा के लिए जागरण का शंखनाद है। इन दिव्य आत्माओं में त्रैलंग स्वामी का स्थान अद्वितीय और अलौकिक है।

त्रैलंग स्वामी को अनेक श्रद्धालु शिव का अवतार मानते हैं। उनका जीवन किसी एक युग, जाति या परंपरा की सीमाओं में बंधा नहीं था। वे सनातन धर्म के उस शाश्वत स्वरूप का साक्षात् अनुभव थे, जिसमें भक्ति, ज्ञान और योग एक हो जाते हैं।

उनका तप, उनकी करुणा और उनकी अलौकिक शक्तियाँ न केवल तत्कालीन समाज के लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी मार्गदर्शक बनीं। उनका हर उपदेश, हर मौन और हर आशीर्वाद, साधना के मार्ग पर चलने वाले के लिए दीपस्तंभ की तरह है।

इस ग्रंथ में हम त्रैलंग स्वामी के जीवन, उनके अद्भुत प्रसंगों और उनके आध्यात्मिक संदेशों को एकत्र कर, पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं। आशा है, यह पुस्तक आपके अंतर्मन में वह चिंगारी प्रज्वलित करेगी, जो आपको आपके अपने सत्य से मिलाने में सहायक होगी।


 

 

 

 

 

 

 

 

"सत्य ही शिव है, और शिव ही सौंदर्य है।
जब मन मौन हो जाता है, तब आत्मा शिवत्व का अनुभव करती है।"

विज्ञान भैरव तंत्र


 

लेखक की बात

भारत की संत परंपरा उतनी ही अनादि है जितना इसका सनातन धर्म, और उतनी ही अमूल्य जितना इसकी आत्मा में बसने वाला सत्य।
यह परंपरा केवल इतिहास की स्मृति नहीं है, बल्कि आज भी जीवंत है — हमारे ऋषि, महायोगी और संत ऐसे दीपस्तंभ हैं, जिन्होंने अंधकार में भी मार्ग को प्रकाशमान किया।

त्रैलंग स्वामी जैसे महायोगियों का जीवन केवल एक प्रेरक कथा नहीं, बल्कि वह एक जीवंत द्वार है —

एक ऐसा द्वार जो हमें साधना, आत्मबोध और परम चैतन्य की ओर आमंत्रित करता है।
उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि अध्यात्म केवल विचार नहीं, बल्कि जीने और अनुभव करने की प्रक्रिया है।

इस पुस्तक में मैंने उनके जीवन, साधना और शिक्षाओं को —

  • गहन शोध
  • प्रामाणिक संदर्भ
  • सच्ची श्रद्धा

के साथ संकलित करने का प्रयास किया है, ताकि पाठक केवल पढ़ें ही नहीं, बल्कि उसे आत्मा से अनुभव भी करें।

मेरा उद्देश्य है कि इस पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति में आपको वही करुणा, वही प्रेरणा और वही आध्यात्मिक ऊर्जा महसूस हो, जो त्रैलंग स्वामी के जीवन से प्रस्फुटित होती है।

यह ग्रंथ उन सभी साधकों, जिज्ञासुओं और सत्य-प्रेमी पाठकों को समर्पित है, जो भारत की आध्यात्मिक धरोहर को गहराई से समझना और अपने जीवन में उतारना चाहते हैं।

आपका,
एक जिज्ञासु साधक


 


 

भूमिका:

भारत की संत परंपरा – एक अमर धरोहर

भारतवर्ष केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं है — यह एक जीवंत, अनंत और धड़कती हुई आध्यात्मिक चेतना है। इसकी आत्मा उन ऋषियों, मुनियों, योगियों और संतों की साधना से प्रकाशित है, जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त कर न केवल स्वयं को, बल्कि समस्त मानवता को मोक्ष-पथ की ओर प्रेरित किया।

इस पुस्तक का केंद्रबिंदु — त्रैलंग स्वामी” (जिन्हें अनेक लोग त्रैलंग स्वामी” के नाम से भी जानते हैं) — ऐसे ही एक अद्वितीय संत हैं, जिन्हें काशी के जीवंत शिव” के रूप में पूजा गया। नाम के भिन्न उच्चारण का कारण उनका तेलुगु भाषी क्षेत्र से होना है, परंतु Trailanga Swami ही उनका सर्वाधिक प्रचलित, मान्य और ऐतिहासिक रूप से स्वीकृत नाम है।

महान भारतीय संत – भाग 1: त्रैलंग स्वामी – शिव के अवतार की जीवनी” केवल एक महापुरुष की जीवन गाथा नहीं है। यह सनातन परंपरा की उस जीवंत झांकी का वर्णन है, जहाँ साधना, सेवा और शिवत्व एकाकार हो जाते हैं।

इस श्रृंखला का उद्देश्य उन दिव्य आत्माओं के जीवन को पुनः प्रकट करना है, जिन्होंने धर्म, तप, त्याग और प्रेम के माध्यम से समाज को नयी दिशा दी। त्रैलंग स्वामी इस श्रृंखला की पहली कड़ी हैं — एक ऐसे योगी, जिनका जीवन स्वयं एक साधना था और जिनकी उपस्थिति ही शिवत्व का प्रत्यक्ष अनुभव कराती थी।

यह पुस्तक और संपूर्ण श्रृंखला उन सभी जिज्ञासुओं, साधकों और सत्य-प्रेमी पाठकों को समर्पित है, जो भारत की आध्यात्मिक धरोहर को केवल पढ़ना ही नहीं, बल्कि उसे जीना भी चाहते हैं।

लेखक


 

 

Contents

लेखक की बात. 7

भूमिका: 11

भारत की संत परंपरा – एक अमर धरोहर 11

अध्याय 1: 1

त्रैलंग स्वामी — जीवनकाल और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि  1

जीवनकाल: तथ्य और किंवदंतियाँ.. 2

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश 3

दीर्घायु और “अमर योगी” की उपाधि.. 4

जीवन का स्वरूप: योग, वेदांत और तप 4

लोकश्रुतियाँ बनाम ऐतिहासिक तथ्य... 5

अध्याय 2: 7

सन्यास और गुरु जीवन. 7

गृहत्याग और तीर्थयात्रा. 7

गुरु भगीरथानंद से दीक्षा.. 8

तप और साधना की कठोर साधनाएँ 9

अद्वैत वेदांत में अडिग श्रद्धा.... 11

ब्रह्मसाक्षात्कार और लोककल्याण की दिशा में परिवर्तन 11

अध्याय 3: 14

वाराणसी की तपस्थली और चमत्कारी जीवन. 14

काशी आगमन और दीर्घकालीन निवास. 14

देह-तत्त्व से परे स्थित एक महायोगी.. 15

काशी में चमत्कारों की अमिट छवि.. 16

त्रैलंग स्वामी और जनकल्याण. 18

अध्याय 4: 21

दर्शन और शिक्षाएँ – वेदांत, योग और ब्रह्मज्ञान का स्वरूप 21

अद्वैत वेदांत का जीवंत उदाहरण. 22

योग: क्रिया नहीं, स्थिति.. 23

आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान. 24

शिक्षण शैली – मौन और प्रतीकात्मकता.. 25

व्यवहारिक धर्म और मानव सेवा. 26

अध्याय 5: 28

प्रमुख शिष्य, भक्त और उनके अनुभव 28

स्वामी भास्करानंद सरस्वती: समकालीन योगी और आत्मिक सहचर 29

शारदा माता और रामकृष्ण परमहंस के संदर्भ. 30

साधारण भक्तों के चमत्कारी अनुभव 31

शिष्य संप्रदाय और परंपरा. 32

आधुनिक संतों पर प्रभाव 33

अध्याय 6 : 35

त्रैलंग स्वामी के लोक-कल्याणकारी चमत्कार 35

अंधे व्यक्ति की दृष्टि वापसी.. 35

गंभीर रोग से पीड़ित महिला की आरोग्यता.. 36

विष देने वाले व्यापारी की क्षमा.. 37

गंगा पर तैरते हुए स्वामीजी.. 38

धूप में तपते पत्थर पर ध्यान. 39

अपमान करने वाले साधु का परिवर्तन. 40

जल को दूध में परिवर्तित करना.. 40

अध्याय 7: 42

सामाजिक दृष्टिकोण और धार्मिक समरसता.. 42

जाति-पाति से परे दृष्टिकोण. 43

स्त्री के प्रति सम्मान और समता.. 44

सभी धर्मों का सम्मान. 45

भिक्षा की परंपरा और समानता.. 46

सामाजिक मूल्यों पर उनका प्रभाव 47

निष्कर्ष: धर्म का उद्देश्य – समरसता, सेवा और समभाव 48

अध्याय 8: 50

समाधि, रहस्यमयी देहांत और लोकविज्ञान. 50

वाराणसी में अंतिम काल: मौन की अंतिम गहराई 51

देहत्याग या महाप्रयाण: पंचगंगा घाट पर अंतिम ध्यान 52

देहत्याग के बाद की घटनाएँ: अमरता का अनुभव 53

लोकविज्ञान और श्रद्धा परंपरा: संत से लोकदेवता तक  54

अध्याय 9: 57

विरासत, स्मारक और आधुनिक युग में प्रभाव 57

आध्यात्मिक विरासत. 57

स्मारक और आश्रम. 59

आधुनिक संतों पर प्रभाव 60

त्रैलंग स्वामी साहित्य और शोध. 61

आज के युग में प्रासंगिकता.. 62

अध्याय 10: 65

त्रैलंग स्वामी – योग, ज्ञान और करुणा के अमर प्रतीक  65

एक जीवन, अनेक रूप 66

त्रैलंग स्वामी से जीवन को क्या सीखें. 67

उनकी उपस्थिति आज भी जीवित है 69

परिशिष्ट 1: 71

त्रैलंग स्वामी के प्रेरक वचन. 71

जो मौन को समझ गया, वह ब्रह्म को पा गया।” 72

जब तक देह सत्य लगती है, आत्मा भ्रमित रहती है।” 72

धर्म वह है जो सबको जोड़ता है – जो तोड़े, वह अधर्म है।” 73

सेवा, ध्यान से ऊँचा कोई योग नहीं।” 73

गुरु वही है, जो तुम्हें स्वयं से मिला दे।” 74

सत्य ही ईश्वर है।” 74

योग वह है जो आत्मा को परमात्मा से मिलाता है।” 75

शिवत्व केवल पूजा में नहीं, व्यवहार में भी हो।” 75

साधना का फल तप से नहीं, समर्पण से मिलता है।” 76

परिशिष्ट 2 77

जीवन से जुड़ी लघु कथाएँ 77

जल मेरा स्वरूप है 77

चोर भी मेरा ही अंश है 78

शिव सदा तुम्हारे पास हैं 78

मौन ही उपदेश है 79

भिक्षा और अभयदान. 80

गुरु वही जो दृष्टि दे 80

परिशिष्ट 3: 82

त्रैलंग स्वामी पर लिखित प्रमुख ग्रंथ. 82

त्रैलंग स्वामी चरित्र’ – हिंदी. 82

‘The Sage of Varanasi’ – English 82

‘Avadhut: The Life of Trailanga Swami’ 83

बंगाली स्रोत: 'एक त्रिकोणीय पति की जीवन कहानी' 84

प्रकाशक: श्री रमाकृष्ण मिशन. 84

परिशिष्ट 4: 85

शब्दावली (Glossary) 85

परिशिष्ट 5: 90

संदर्भ ग्रंथ सूची.. 90

 



 

अध्याय 1:

त्रैलंग स्वामी — जीवनकाल और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

त्रैलंग स्वामी न केवल एक महायोगी थे, बल्कि भारत की संत परंपरा के जीवंत प्रतीक थे — जहाँ योग, वेदांत और चमत्कार एकाकार हो जाते हैं।”

काशी के घाटों पर एक योगी, जो गंगा पर तैरते थे, विषपान के बाद भी अडिग रहते थे, और जिनके बारे में कहा जाता है कि वे तीन शताब्दियों तक जीवित रहे — यह कोई लोककथा नहीं, बल्कि त्रैलंग स्वामी का जीवन है। वे भारत की संत-परंपरा के ऐसे विलक्षण पुरुष थे, जिनका व्यक्तित्व समय और मृत्यु की सीमाओं से परे प्रतीत होता है।

जीवनकाल: तथ्य और किंवदंतियाँ

त्रैलंग स्वामी (या त्रैलंग स्वामी) का जन्म 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में माना जाता है। अनेक जीवनीकारों और आधुनिक स्रोतों के अनुसार, उनका जन्म 1607 ईस्वी में आंध्र प्रदेश के विजयनगरम ज़िले के कुम्बिलापुरम (Kumbilapuram) नामक गाँव में हुआ था।

कुछ अन्य लोकमान्यताओं में यह तिथि 1529 ईस्वी मानी जाती है, परंतु यह अधिकतर लोक श्रुति पर आधारित है, न कि किसी प्रमाणित ऐतिहासिक अभिलेख पर।

उनका जन्म एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार में हुआ — पिता का नाम नरसिंह शास्त्री और माता का नाम विद्यावती था। बाल्यकाल में उनका नाम शिवराम रखा गया।

शैशव से ही उनमें वैराग्य की भावना जाग्रत थी। परिवारजन अक्सर यह देखकर चकित होते कि छोटा शिवराम घंटों मौन, ध्यानमग्न और एकाग्र भाव से बैठा रहता।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश

त्रैलंग स्वामी का जीवनकाल मुग़ल काल, विशेषकर औरंगज़ेब (1658–1707) और उसके बाद के राजनीतिक संक्रमण काल में फैला था। यह भारत में धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक तनाव का समय था।

वाराणसी — जहाँ स्वामीजी ने अपने जीवन का अधिकांश भाग बिताया — उस दौर में एक ओर धार्मिक प्रताड़ना झेल रहा था, तो दूसरी ओर यह हिंदू पुनर्जागरण, वेदांत और योगिक साधना का केंद्र भी बन रहा था।

इसी पृष्ठभूमि में त्रैलंग स्वामी एक ऐसे संत के रूप में प्रकट हुए, जो सांप्रदायिक भेदभाव से परे, योग और दर्शन की सार्वभौमिक चेतना के प्रतीक बने।

दीर्घायु और “अमर योगी” की उपाधि

त्रैलंग स्वामी के जीवन की सबसे चर्चित बात उनकी दीर्घायु है। विभिन्न श्रद्धालु परंपराओं और जीवनी कारों के अनुसार, यह विश्वास किया जाता है कि वे लगभग 280 वर्ष तक जीवित रहे।

हालाँकि इस दावे की पुष्टि आधुनिक ऐतिहासिक प्रमाणों से नहीं होती, परंतु अनेक संतों और विद्वानों ने श्रद्धा पूर्वक उनके लंबे जीवनकाल का उल्लेख किया है। उनके समकालीन लाहिरी महाशय जैसे संत भी उनकी दीर्घायु और योगिक सिद्धियों के साक्षी माने जाते हैं।

उनकी दीर्घायु को केवल जैविक घटना नहीं, बल्कि योगिक नियंत्रण, ब्रह्मचर्य और तपस्या का परिणाम माना जाता है।

जीवन का स्वरूप: योग, वेदांत और तप

त्रैलंग स्वामी का सम्पूर्ण जीवन तप, ध्यान और ब्रह्मज्ञान की चरम साधना का उदाहरण है।

बाल्यकाल से ही वेद, उपनिषद, योगसूत्र और अद्वैत वेदांत में गहन रुचि रखने वाले स्वामीजी को कुछ श्रद्धालु “पूर्वजन्म संस्कार से आत्मज्ञानी” मानते हैं।

उन्होंने गृहस्थ जीवन को अस्वीकार कर, संन्यास का मार्ग चुना। उनके जीवन का अधिकांश समय वाराणसी में बीता — मणिकर्णिका घाट, पंचगंगा घाट और त्रैलंग आश्रम में ध्यानरत रहते हुए।

त्रैलंग स्वामी सदैव मौन रहते थे। जब वे बोलते, तो उनके वाक्य वेदवाक्य जैसे प्रतीत होते थे।”

लोकश्रुतियाँ बनाम ऐतिहासिक तथ्य

त्रैलंग स्वामी के जीवन में अनेक घटनाएँ चमत्कार और अलौकिक प्रसंगों से जुड़ी हैं — जैसे जल पर चलना, विषपान के बाद भी सुरक्षित रहना, और बिना अन्न-जल के वर्षों तक जीवित रहना।

इनमें से कुछ विवरण निश्चित रूप से लोकश्रुति और श्रद्धालु अनुभव पर आधारित हैं, जबकि कुछ के प्रत्यक्षदर्शी समकालीन संत और विद्वान भी रहे हैं।

इसलिए, इन्हें केवल “मिथक” कहकर नकारना कठिन है; वे आध्यात्मिक यथार्थ और लोकमान्यता, दोनों के संगम का हिस्सा हैं।


 

अध्याय 2:

सन्यास और गुरु जीवन

त्रैलंग स्वामी का सन्यास जीवन उनके आध्यात्मिक उत्कर्ष की वास्तविक प्रस्तावना है। सांसारिकता से निवृत्त होकर आत्मा की परम सत्ता की ओर अग्रसर होने की यह यात्रा उनके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का मूलाधार बन गई। इस खण्ड में हम त्रैलंग स्वामी के सन्यास ग्रहण, गुरु दीक्षा, तपस्वी जीवन और ब्रह्मज्ञान की दिशा में उनके अद्वितीय प्रयासों का विवेचन करेंगे।

गृहत्याग और तीर्थयात्रा

बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक रुचि रखने वाले शिवराम, जब लगभग चालीस वर्ष की आयु को प्राप्त हुए, तो उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन का मोह त्याग कर सन्यास का मार्ग चुनने का संकल्प लिया। यह त्याग केवल सामाजिक उत्तरदायित्वों का ही नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार हेतु समर्पण का द्योतक था। उनके इस निर्णय के पीछे वैराग्य की कोई तात्कालिक प्रेरणा नहीं थी, बल्कि वर्षों की अंतर्यात्रा और वैदिक अध्ययन के बाद उत्पन्न वह जिज्ञासा थी जो आत्मा और ब्रह्म की एकता को प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहती थी।

सन्यास की ओर उनका पहला कदम रहा — तीर्थाटन। वे काशी पहुँचे, जो भारत की सनातन धार्मिक चेतना का हृदय है। काशी में कुछ समय रहने के पश्चात उन्होंने देश के अन्य पवित्र स्थलों की यात्रा आरंभ की। वे प्रयाग, मथुरा, वृंदावन, बदरी-केदार, गौमुख, नीलकंठ, और कैलास मानसरोवर जैसे उत्तुंग तीर्थों तक पहुँचे। दक्षिण भारत में रामेश्वरम् और तिरुवन्नमलै जैसे शिवतीर्थों में भी वे साधना में लीन रहे।

गुरु भगीरथानंद से दीक्षा

इन यात्राओं के दौरान वे अनेक संतों और तपस्वियों के संपर्क में आए। परंतु जिस आध्यात्मिक संतुलन और ब्रह्मज्ञान की उन्हें खोज थी, वह उन्हें काशी में ही स्वामी भगीरथानंद सरस्वती के रूप में मिला। स्वामी भगीरथानंद महान तपस्वी, वेद-वेदांत के प्रकांड विद्वान और सनातन परंपरा के परम आचार्य माने जाते थे।

वर्ष 1679 ईस्वी में त्रैलंग स्वामी को उनसे विधिवत् सन्यास दीक्षा प्राप्त हुई। गुरु ने उन्हें नया नाम दिया — स्वामी गणपति सरस्वती। यह नाम दर्शाता है कि वे अब दैहिक परिचयों से परे, शास्त्रसम्मत सन्यास आश्रम में प्रतिष्ठित हो चुके थे। सन्यास, केवल वस्त्र परिवर्तन या लौकिक त्याग नहीं होता — वह आत्मा की पुनर्जन्म यात्रा का एक गहन मोड़ होता है, जहाँ साधक अपने अहंकार का पूर्ण विसर्जन कर देता है।

तप और साधना की कठोर साधनाएँ

गुरु से दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात त्रैलंग स्वामी ने जो मार्ग चुना, वह कठिन तप और अनवरत साधना का था। उन्होंने न केवल सांसारिक भोगों का त्याग किया, बल्कि शरीरगत आवश्यकताओं को भी न्यूनतम करते हुए वर्षों तक गंगाजल और सूर्य की ऊर्जा से ही जीवन निर्वाह किया। उनके जीवन में मौन एक शक्ति थी; वह मौन जो केवल वाणी का नहीं, विचारों का भी त्याग करता है। उन्होंने ध्यान, जप, और निरंतर ब्रह्मचिंतन को ही अपनी जीवनविधि बना लिया।

उनकी साधनाएँ मुख्यतः तीन स्तरों पर केंद्रित थीं:

एकांतवास वे निर्जन कंदराओं, हिमालय की गुफाओं, और तटवर्ती काशी के घाटों पर ध्यानस्थ रहते।

मौन साधना वर्षों तक उन्होंने मौन व्रत का पालन किया, जिससे उनके आंतरिक मन की वाणी जागृत हुई।

ब्रह्माभ्यास अद्वैत वेदांत पर आधारित, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की चेतना में रमण करते हुए वे आत्मा और परमात्मा के भेद को मिटा देने का प्रयास करते रहे।

अद्वैत वेदांत में अडिग श्रद्धा

त्रैलंग स्वामी की साधना का मूल तत्त्व था — अद्वैत दर्शन। वे शंकराचार्य की परंपरा के सतत अनुयायी थे और “एकमेव अद्वितीय ब्रह्म” की सत्ता में उनकी अडिग निष्ठा थी। वे मानते थे कि आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं, बल्कि एक ही अखंड सत्ता के दो रूप हैं। उनका यह दृष्टिकोण न केवल तात्त्विक था, बल्कि अनुभवजन्य भी। उनके जीवन और साधना ने उन्हें इस दर्शन को केवल जानने नहीं, बल्कि जीने का माध्यम बना दिया।

ब्रह्मसाक्षात्कार और लोककल्याण की दिशा में परिवर्तन

गुरु भगीरथानंद सरस्वती के सान्निध्य में दीक्षित होने के कुछ वर्षों पश्चात त्रैलंग स्वामी को ब्रह्मसाक्षात्कार प्राप्त हुआ। यह कोई कल्पित अनुभव नहीं था, अपितु गहन साधना और त्याग से उत्पन्न वह अनुभूति थी, जहाँ जीव, जगत और ब्रह्म — एक ही सत्ता में विलीन हो जाते हैं।

यह अनुभव उनके जीवन का परिवर्तनकारी क्षण था। अब वे एकान्त तपस्वी नहीं, अपितु लोकहित में रत ब्रह्मज्ञानी संत बन गए। उन्होंने ज्ञानदान, सेवा, और आत्मबोध को ही अपना धर्म मान लिया। काशी में उन्होंने अनेक जिज्ञासुओं को आत्मा का स्वरूप बताया, पीड़ितों की सहायता की, और सत्संगों में अपने अनुभवों को साझा किया।

उपसंहार

इस अध्याय में हमने देखा कि किस प्रकार शिवराम से स्वामी गणपति सरस्वती, और फिर त्रैलंग स्वामी बनने की यह यात्रा एक साधारण मानव की असाधारण साधना की कथा है। यह केवल गुरु-शिष्य परंपरा की पुनःस्थापना नहीं, बल्कि उस ब्रह्ममार्ग की पुष्टि है, जो त्याग, तप, और आत्मसाक्षात्कार से होकर गुजरता है। त्रैलंग स्वामी के सन्यास जीवन में छिपा है वह बीज, जिससे उनका समस्त लोककल्याणमयी जीवनवृक्ष फला-फूला।


 

अध्याय 3:

वाराणसी की तपस्थली और चमत्कारी जीवन

वाराणसी—जिसे प्राचीन काल से ही मोक्ष की नगरी, आध्यात्मिक चेतना की राजधानी और सनातन संस्कृति की धुरी माना गया है—त्रैलंग स्वामी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण तपस्थली रही। यही वह भूमि थी जहाँ उन्होंने न केवल योग, तप और समाधि की चरम सीमाओं को स्पर्श किया, बल्कि चमत्कार और जनसेवा के माध्यम से असंख्य जनों के जीवन को भी छुआ।

काशी आगमन और दीर्घकालीन निवास

ऐतिहासिक और जनश्रुति-आधारित स्रोतों के अनुसार, त्रैलंग स्वामी का वाराणसी आगमन लगभग 1737 ईस्वी के आसपास हुआ। यहाँ आने के पश्चात वे लगभग डेढ़ शताब्दी तक इस नगरी में तप और साधना करते रहे। यह अवधि भारतीय इतिहास की दृष्टि से भी परिवर्तनशील समय था—मुगल साम्राज्य के अवसान और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के उदय का दौर—परंतु त्रैलंग स्वामी इन सभी सांसारिक बदलावों से परे, साधना की शाश्वत धारा में स्थित रहे।

उनका जीवन एक दैवीय लय में प्रवाहित होता था। वे किसी एक स्थान पर स्थायी रूप से नहीं रहते थे। कभी पंचगंगा घाट, कभी तुलसी घाट, तो कभी मणिकर्णिका या निर्जन गुफाओं में, वे सहज भाव से देखे जाते। उनका निवास केवल शरीर की आवश्यकता नहीं, बल्कि आत्मा की चेतना से जुड़ा था। उन्हें स्थान, समय, ऋतु, भूख-प्यास या शरीर की कोई भी स्थिति प्रभावित नहीं करती थी।

देह-तत्त्व से परे स्थित एक महायोगी

त्रैलंग स्वामी का आचार-विचार और जीवनशैली योग के उन उच्चतम सिद्धांतों पर आधारित थी जो शरीर को आत्मा का साधन मात्र मानते हैं। वे पूर्णतः नग्न रहते थे, क्योंकि उनके लिए देहिक लज्जा या सामाजिक प्रदर्शन का कोई अर्थ नहीं था। इस नग्न अवस्था में भी उनके मुखमंडल पर ऐसी दिव्यता और शांति होती थी कि सामान्य जनों के साथ-साथ अंग्रेज अधिकारी भी उनकी उपस्थिति से प्रभावित हो जाते थे।

ब्रिटिश प्रशासन, जो उस काल में भारत में शासन कर रहा था, त्रैलंग स्वामी की जीवनशैली को कानूनी और नैतिक दृष्टि से असुविधाजनक मानता था। परंतु जब भी प्रशासन ने उन्हें बाधित करने का प्रयास किया, वे चमत्कारों और योगिक शक्तियों से इतने विस्मित हुए कि अंततः श्रद्धा और सम्मान के भाव से नतमस्तक हो गए। अंग्रेज अफसर तक उन्हें "लिविंग गॉड" (Living God) कहा करते थे।

काशी में चमत्कारों की अमिट छवि

त्रैलंग स्वामी के जीवन में घटित चमत्कारों की कहानियाँ केवल किंवदंति नहीं, बल्कि ऐसे अनुभव हैं जिन्हें हजारों प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया और अनेक सनातन ग्रंथों, जीवनी-संग्रहों, वृतान्तों तथा साधु-संन्यासियों की वाणी ने पुष्ट किया है। कुछ प्रमुख चमत्कार इस प्रकार हैं:

गंगा जल में ध्यानस्थ स्थिति: त्रैलंग स्वामी घंटों, कभी-कभी पूरे दिन तक गंगा जल में बैठे रहते, गहरे ध्यान में स्थित। उनका शरीर जल में तैरता नहीं था, बल्कि स्थिर रहता था, मानो जल उन्हें धारण कर रहा हो।

विषपान के बावजूद सुरक्षित रहना: एक बार उन्होंने चूना (CaO), जिसे सामान्यतः विषाक्त माना जाता है, बिना किसी संकोच के पी लिया। उपस्थित जन इस घटना से स्तब्ध रह गए, परंतु स्वामी की स्थिति सामान्य बनी रही। उनका शरीर किसी भी प्रकार के विष या ताप का प्रभाव नहीं लेता था।

बिना भोजन के वर्षों तक जीवित रहना: अनेक साधकों और भक्तों के अनुसार, वे वर्षों तक बिना किसी अन्न या जल के जीवित रहे। यह योग की सिद्धि और शरीर पर पूर्ण नियंत्रण का उदाहरण माना गया।

जेल से लुप्त हो जाना: एक प्रसंग के अनुसार, उन्हें अंग्रेज़ प्रशासन ने "सार्वजनिक मर्यादा" के उल्लंघन में गिरफ़्तार किया। परंतु अगले दिन जब कारागार खोला गया, तो वे वहाँ नहीं थे—बल्कि जेल की छत पर ध्यानमग्न अवस्था में देखे गए। यह घटना स्वयं ब्रिटिश अफसरों द्वारा दर्ज की गई है।

त्रैलंग स्वामी और जनकल्याण

त्रैलंग स्वामी की उपस्थिति केवल व्यक्तिगत साधना तक सीमित नहीं थी। वे करुणा और सेवा की मूर्ति थे। उनके स्पर्श से रोगी आरोग्य प्राप्त करते थे, और दर्शन से साधकों को आत्मानुभूति होती थी। वे प्रत्येक आगंतुक का स्वागत मौन या मुस्कान से करते, और उनके हृदय को ऐसा अनुभव देते मानो उन्होंने किसी दैवी सत्ता का साक्षात्कार किया हो।

स्वामीजी में अहंकार का पूर्ण अभाव, विनम्रता का उच्चतम स्तर, और आत्मिक समानता का भाव था। वे राजा और रंक, हिन्दू और मुसलमान, विद्वान और सामान्य जन—सभी को एक ही दृष्टि से देखते थे।

निष्कर्ष: काशी में अद्वितीय आलोक

त्रैलंग स्वामी का वाराणसी-जीवन उन्हें न केवल एक महान योगी, अपितु एक चमत्कारी तपस्वी के रूप में स्थापित करता है। वे अपने जीवन से यह प्रमाणित करते हैं कि योग केवल सिद्धि नहीं, सेवा है; और चमत्कार केवल प्रदर्शन नहीं, करुणा का प्रतीक है।

उनकी उपस्थिति आज भी गंगा की धाराओं में, काशी के घाटों में, और साधकों के हृदयों में अनुभव की जा सकती है। वे एक ऐसे जीवित संत थे जिनकी चेतना काल, मृत्यु और देह की सीमाओं से परे विस्तृत है। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर आज भी अनेक साधक, योगी और सामान्य जन जीवन के उच्चतर सत्य की खोज में प्रवृत्त होते हैं।


 

अध्याय 4:

दर्शन और शिक्षाएँ – वेदांत, योग और ब्रह्मज्ञान का स्वरूप

त्रैलंग स्वामी का आध्यात्मिक व्यक्तित्व केवल तप, समाधि और चमत्कारों की परिधि तक सीमित नहीं था; वे एक जीवंत दार्शनिक चेतना थे, जिनका जीवन स्वयं में एक मौन उपनिषद था। यद्यपि उन्होंने बहुत कम बोला, परंतु उनका मौन ही शिक्षा था, उनकी चेष्टाएँ ही उपदेश थीं, और उनकी उपस्थिति ही साधना का प्रमाण।

उनकी आध्यात्मिक दृष्टि वेदांत के उस अद्वैत स्वरूप में प्रतिष्ठित थी, जिसे केवल पढ़ा या सुना नहीं जाता, अपितु जिया जाता है। वे योग के सिद्धान्त को केवल अभ्यास के रूप में नहीं, अपितु चेतना की अवस्था के रूप में समझते थे। उनका समग्र जीवन ब्रह्मज्ञान के मूर्त रूप का साक्षात्कार कराता है।

अद्वैत वेदांत का जीवंत उदाहरण

त्रैलंग स्वामी का समस्त जीवन “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) की उद्घोषणा का जीवंत प्रतीक था। उन्होंने कभी अपने को 'शरीर' नहीं माना। वस्त्रविहीन अवस्था में विचरण करना, ऋतु-विपरीत समय में भी शरीर की उपेक्षा करना, और जीवन की प्रत्येक स्थिति में समभाव रखना – ये सभी उनके उस आत्मबोध के बाह्य संकेत थे, जो उन्हें साकार ब्रह्म बनाते थे।

उनका यह कथन विशेष प्रसिद्ध है:

"सत्य एक है, लेकिन ज्ञानी उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।"

(एकोपि सत्यः, बहुधा विप्राः वदन्ति।)

इस वाक्य में उनके समावेशी अद्वैत वेदांत की झलक मिलती है। वे स्पष्ट करते थे कि मोक्ष केवल किसी विशेष धर्म, जाति या जीवन‑शैली से नहीं, अपितु आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही प्राप्त हो सकता है। यह शिक्षण उस समय के समाज के लिए क्रांतिकारी था, जो बाह्य आडंबरों, जातीय व्यवस्थाओं और कर्मकांडों में उलझा हुआ था।

 योग: क्रिया नहीं, स्थिति

त्रैलंग स्वामी के लिए योग केवल शरीर की क्रियाओं का अभ्यास नहीं, अपितु चेतना की वह अवस्था थी जहाँ आत्मा और परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है। वे कहते नहीं थे, परंतु जीते थे कि:

योगः चित्तवृत्ति निरोधः” — योग वह है जहाँ मन की समस्त वृत्तियाँ शांत हो जाएँ।

उनके अनेक चमत्कार — जैसे घंटों तक जल में डूबे रहना, अत्यंत विषैली वस्तुओं को ग्रहण करना, अथवा नग्न अवस्था में तप्त घाटों पर स्थित रहना — उनके योगसिद्ध होने के प्रमाण माने जाते हैं, परंतु उनके लिए यह कोई प्रदर्शन नहीं, बल्कि सहज अवस्था थी।

उनकी साधना का सार था:

·       मन का नियंत्रण

·       इंद्रियों पर संयम

·       परमात्मा से एकत्व की अनुभूति

वस्तुतः, त्रैलंग स्वामी 'राजयोग' और 'ज्ञानयोग' के संयोग का मूर्त स्वरूप थे।

 आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान

त्रैलंग स्वामी की शिक्षाओं में आत्मज्ञान सर्वोपरि था। वे स्पष्ट कहते:

"जो स्वयं को जानता है, वही ईश्वर को जानता है।"

यह कथन केवल वैदांतिक सिद्धांत नहीं, अपितु उनके जीवन का सार था। उनके अनुसार, आत्मा का अनुभव श्रवण, मनन, और निदिध्यासन से भी आगे का विषय है — वह अनुभवयोग्य है, न कि मात्र चिंतनयोग्य।

उनकी साधना और मौन, दोनों यह संकेत करते हैं कि ब्रह्मज्ञान को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। उन्होंने इस ज्ञान को किसी ग्रंथ या प्रवचन में नहीं, अपितु जीवन की प्रत्येक साँस में प्रकट किया।

शिक्षण शैली – मौन और प्रतीकात्मकता

त्रैलंग स्वामी की शिक्षण शैली अद्वितीय थी – वह न तो औपचारिक प्रवचन देते थे, न ही शिष्यों को प्रवृत्त करते थे। उनकी शिक्षाएँ मौन, प्रतीकों और सहज व्यवहार के माध्यम से प्रकट होती थीं।

कुछ उदाहरण:

किसी साधक को मौन में गंगा-स्नान के लिए ले जाना — शुद्धि का प्रतीक

किसी प्रश्न का उत्तर केवल मुस्कान से देना — मन के पार की भाषा

किसी रोगी को गले लगाना — करुणा और आत्म-एकत्व का प्रदर्शन

इन घटनाओं में शिक्षाओं का गूढ़ संकेत छिपा होता था। वे यह मानते थे कि मौन, शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावशाली साधन है — विशेषतः तब जब विषय आत्मा और ब्रह्म के रहस्य का हो।

व्यवहारिक धर्म और मानव सेवा

त्रैलंग स्वामी के दर्शन में कर्मकांड से अधिक बल था – करुणा और सेवा पर। उनके अनुसार, धर्म का वास्तविक स्वरूप है – प्रत्येक प्राणी में आत्मा का अनुभव करना और उस आत्मा की सेवा करना।

वाराणसी के घाटों पर उन्होंने निःस्वार्थ भाव से:

·       रोगियों की देखभाल की

·       भूखों को भोजन कराया

·       असहायों को आश्रय दिया

उनकी दृष्टि में सेवा ही सच्ची साधना थी। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि परमात्मा की पूजा केवल मन्दिरों में नहीं, अपितु मनुष्यता में है।

त्रैलंग स्वामी के दर्शन में गहराई थी, परंतु वह क्लिष्ट नहीं थी। उन्होंने अद्वैत वेदांत को जीवन के हर क्षण में जिया, योग को आत्मविकास की अवस्था माना, और आत्मज्ञान को मौन की भाषा में प्रकट किया। उनका दर्शन 'जीव' और 'ब्रह्म' के भेद को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है।

आज, जबकि धर्म पुनः बाह्य प्रदर्शन और वैचारिक संघर्षों में उलझता जा रहा है, त्रैलंग स्वामी की शिक्षाएँ एक बार फिर मनुष्य को भीतर की ओर लौटने का आह्वान करती हैं।


 

अध्याय 5:

प्रमुख शिष्य, भक्त और उनके अनुभव

त्रैलंग स्वामी केवल योगशक्ति के मूर्त स्वरूप ही नहीं थे, अपितु वे एक आध्यात्मिक चेतना थे, जिनके संपर्क में आने मात्र से साधकों का जीवन परिवर्तित हो जाता था। वे न किसी एक परंपरा तक सीमित रहे और न ही किसी मत या पंथ के प्रचारक थे, फिर भी उनके प्रभाव की गहराई ने अनेक संतों, गृहस्थों और साधकों को प्रभावित किया। इस अध्याय में हम उनके उन प्रमुख शिष्यों, भक्तों और अनुयायियों की चर्चा करेंगे, जिनके अनुभव त्रैलंग स्वामी के दिव्य स्वरूप को उद्घाटित करते हैं।

स्वामी भास्करानंद सरस्वती: समकालीन योगी और आत्मिक सहचर

स्वामी भास्करानंद सरस्वती काशी के एक प्रतिष्ठित संत थे, जो योग और वेदांत के महान आचार्य माने जाते हैं। उनका त्रैलंग स्वामी के साथ संबंध केवल भौतिक स्तर पर नहीं, अपितु आत्मिक गहराई से जुड़ा था। उन्होंने त्रैलंग स्वामी को अनेक बार समाधि की अवस्था में देखा और उन्हें "साक्षात् शिव" की संज्ञा दी।

स्वामी भास्करानंद कहा करते थे:

"त्रैलंग स्वामी के पास केवल बैठना भी एक महान तीर्थ में स्नान करने के तुल्य है।"

उनका यह कथन दर्शाता है कि त्रैलंग स्वामी का सान्निध्य मात्र साधना की उच्चतम अवस्था का अनुभव करवा सकता था। इन दोनों संतों के मध्य मौन संवाद हुआ करता था, जो गूढ़ आत्मिक अनुभूतियों पर आधारित होता था।

शारदा माता और रामकृष्ण परमहंस के संदर्भ

हालाँकि रामकृष्ण परमहंस और त्रैलंग स्वामी की प्रत्यक्ष भेंट का कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है, परंतु एक गहन आध्यात्मिक आदरभाव अवश्य दिखाई देता है। शारदा माता ने त्रैलंग स्वामी को "सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ" कहा था। रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों ने भी त्रैलंग स्वामी के नाम का उल्लेख अत्यंत श्रद्धा से किया है।

एक प्रसिद्ध किंवदंती के अनुसार, जब रामकृष्ण परमहंस से किसी ने पूछा कि क्या भारत में अभी भी सिद्ध महापुरुष हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया:

"काशी में एक महायोगी निवास करते हैं – त्रैलंग स्वामी – उनके समान साक्षात् शिवत्व दुर्लभ है।"

इन प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि त्रैलंग स्वामी का प्रभाव बंगाल की संत परंपरा तक विस्तृत था।

साधारण भक्तों के चमत्कारी अनुभव

त्रैलंग स्वामी की लीलाएँ लोकमानस में इतने गहरे समाहित हो चुकी हैं कि उनका उल्लेख आज भी भक्तिभाव से किया जाता है। यद्यपि ये अनुभव मुख्यतः श्रुति-परंपरा से प्राप्त हैं, परंतु उनकी संख्या और विविधता इन्हें सामान्य लोककथा नहीं रहने देती।

प्रमुख अनुभवों में उल्लेखनीय हैं:

एक अंधे व्यक्ति ने उनके चरणों को स्पर्श किया और उसकी दृष्टि लौट आई।

एक गंभीर रोग से पीड़ित महिला ने उनके स्पर्श से पूर्णतः आरोग्यता प्राप्त की।

एक व्यापारी ने उन्हें विषाक्त भोजन दिया। स्वामीजी ने वह भोजन सहज भाव से ग्रहण कर लिया और उसे क्षमा कर दिया। इसके बाद वह व्यापारी उनका आजीवन भक्त बन गया।

इन घटनाओं की सत्यता का मूल्य केवल तर्क से नहीं, अपितु भक्तिभाव और आध्यात्मिक प्रतीकों की दृष्टि से समझा जा सकता है। इन चमत्कारों का उद्देश्य केवल आकर्षण नहीं, अपितु आत्मविश्वास और श्रद्धा का जागरण था।

शिष्य संप्रदाय और परंपरा

त्रैलंग स्वामी ने किसी शिष्य को औपचारिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया, परंतु उनके अनेक शिष्य थे जिन्होंने उनके ज्ञान और साधना पथ को आगे बढ़ाया।

प्रमुख शिष्यों में सम्मिलित हैं:

स्वामी गणपति गिरी इन्होंने काशी में साधना कर सिद्धि प्राप्त की और संत समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की।

दक्षिण भारत के कुछ योगी जिन्होंने त्रैलंग स्वामी को अपने आध्यात्मिक वंश का प्रेरक माना और उनके नाम पर आश्रमों की स्थापना की।

उनकी परंपरा में मौन, ध्यान, करुणा और आत्मज्ञान को सर्वोपरि स्थान दिया गया। आज भी कुछ आश्रमों में त्रैलंग स्वामी की शिक्षाएँ मौखिक परंपरा के माध्यम से जीवित हैं।

आधुनिक संतों पर प्रभाव

त्रैलंग स्वामी का प्रभाव केवल उनके समकालीनों तक सीमित नहीं रहा। बीसवीं सदी के अनेक संतों और आध्यात्मिक आंदोलनों ने उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा प्राप्त की।

रामकृष्ण मिशन में उन्हें "योगियों के योगी" की उपाधि दी गई है।

परमहंस योगानंद ने अपनी प्रसिद्ध आत्मकथा Autobiography of a Yogi में त्रैलंग स्वामी का वर्णन अत्यंत श्रद्धा से किया है, और उन्हें "अतिदुर्लभ महायोगी" कहा है।

स्वामी विवेकानंद ने भी उनके चरित्र को श्रद्धा से स्मरण किया और उनकी साधना को अद्वितीय माना।

यह प्रभाव इस बात का प्रमाण है कि त्रैलंग स्वामी न केवल काशी या तत्कालीन भारत तक सीमित रहे, बल्कि विश्व आध्यात्मिक मंच पर भी एक अमिट छाप छोड़ गए।

निष्कर्ष

त्रैलंग स्वामी कोई साधारण योगी नहीं, अपितु एक जाग्रत आध्यात्मिक चेतना थे, जिनकी उपस्थिति मात्र से साधकों के जीवन में रूपांतरण संभव हो सका। उनके भक्तों और शिष्यों के अनुभव उनके दिव्य स्वरूप की साक्षी हैं। चाहे वह भास्करानंद जैसे सिद्ध संत हों, या एक सामान्य गृहस्थ — हर किसी ने उनके संसर्ग में कुछ विशेष प्राप्त किया।


 

अध्याय 6 :

त्रैलंग स्वामी के लोक-कल्याणकारी चमत्कार

त्रैलंग स्वामी का जीवन केवल साधना, मौन और त्याग की कहानी नहीं है, बल्कि वह अनगिनत लोक-कल्याणकारी प्रसंगों से भरा हुआ है।

उनके जीवन के अनेक अनुभव, भक्ति और चमत्कार के अद्भुत संगम हैं, जो साधारण मनुष्य की सीमाओं से परे हैं।

ये घटनाएँ केवल चमत्कार के रूप में नहीं देखी जानी चाहिएं, बल्कि इन्हें करुणा, क्षमा और आत्मिक शक्ति के जीवंत प्रमाण के रूप में समझना चाहिए।

अंधे व्यक्ति की दृष्टि वापसी

एक दिन, गंगा किनारे अपने सामान्य मौन भाव में बैठे हुए स्वामीजी के पास एक वृद्ध अंधा व्यक्ति लाया गया। उसका चेहरा थकान, निराशा और वर्षों के अंधकार से बोझिल था। किसी ने उस वृद्ध के कान में कहा,
ये काशी के जीवंत शिव हैं, इनके चरणों में सिर रखो, तुम्हारा कल्याण होगा।”

वृद्ध ने काँपते हाथों से स्वामीजी के चरणों को स्पर्श किया। उसी क्षण, मानो उसकी आँखों के पर्दे हट गए हों — उसने पहली बार सूर्य की किरणों को देखा, गंगा के चमकते जल को देखा, और स्वामीजी के शांत, करुणामय चेहरे को निहारा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, और वह बार-बार उनके चरणों में झुकने लगा। वहाँ उपस्थित लोग विस्मय और भक्ति से भर उठे।

गंभीर रोग से पीड़ित महिला की आरोग्यता

वाराणसी की गलियों में एक महिला वर्षों से एक असाध्य रोग से पीड़ित थी। वैद्य, औषधियाँ, अनुष्ठान — सब विफल हो चुके थे। एक दिन, किसी श्रद्धालु के साथ वह स्वामीजी के पास पहुँची। उसका शरीर कमजोर था, पर उसकी आँखों में अंतिम आशा की लौ थी।

स्वामीजी ने बिना कुछ कहे, अपना हाथ उसके सिर पर रखा। यह स्पर्श केवल त्वचा का नहीं था — यह आत्मा को छूने वाला था। महिला के चेहरे पर तुरंत एक अनोखी शांति उतर आई। कुछ ही दिनों में उसका रोग पूर्णतः समाप्त हो गया। वह महिला जीवनभर स्वामीजी के सेवा-पथ पर बनी रही, और हर मिलने वाले को यही कहती,

उन्होंने मुझे नया जीवन दिया।”

विष देने वाले व्यापारी की क्षमा

काशी में एक व्यापारी था, जो स्वामीजी की लोकप्रियता और भक्तों की भीड़ से ईर्ष्या करता था। उसने निश्चय किया कि स्वामीजी को नीचा दिखाना है। एक दिन, वह स्वादिष्ट भोजन के साथ उनके पास पहुँचा, जिसमें गुप्त रूप से विष मिला हुआ था।

स्वामीजी ने उस व्यापारी की ओर देखा, मुस्कुराए, और बिना झिझक वह भोजन ग्रहण कर लिया। सबको लगा कि यह घातक होगा, पर स्वामीजी का शरीर और मन निर्विकार बने रहे। व्यापारी घबराया, और उसके हृदय में पश्चाताप का ज्वार उमड़ आया। वह उनके चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए क्षमा माँगने लगा।

स्वामीजी ने उसे उठाकर कहा,

तुमने जो दिया, मैं प्रसाद समझकर स्वीकार कर चुका हूँ। द्वेष तुम्हें बाँधता है, क्षमा तुम्हें मुक्त करती है।”

उस दिन के बाद वह व्यापारी न केवल सुधर गया, बल्कि जीवन भर स्वामीजी का अनन्य भक्त बना रहा।

गंगा पर तैरते हुए स्वामीजी

काशी में एक समय गंगा का जलस्तर बहुत बढ़ गया था और धाराएँ प्रचंड थीं। लोग नाव के बिना नदी पार करने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। एक दिन, लोगों ने देखा कि स्वामीजी जल की सतह पर पद्मासन में बैठे-बैठे गंगा पार कर रहे हैं।

वह दृश्य इतना अद्भुत था कि लोग तट पर खड़े-खड़े मंत्रमुग्ध हो गए। जब उनसे इस रहस्य के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने बस इतना कहा —

जिसका मन स्थिर हो, उसके लिए जल और भूमि एक समान हैं।”

धूप में तपते पत्थर पर ध्यान

गर्मियों के दिनों में, जब काशी की धरती तप रही थी, स्वामीजी दोपहर के समय घाट पर एक बड़े पत्थर पर बैठकर घंटों ध्यान करते। पत्थर की तपन साधारण मनुष्य को सहन नहीं होती, पर उनके शरीर और मन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

लोग पूछते — महाराज, यह कैसे संभव है?”

वह मुस्कुराकर कहते — जो शरीर से ऊपर उठ गया, उसे ताप और शीत छू नहीं सकते।”

अपमान करने वाले साधु का परिवर्तन

एक बार, एक अन्य साधु, जो स्वामीजी के प्रभाव से ईर्ष्या करता था, सार्वजनिक रूप से उनका अपमान करने लगा। स्वामीजी ने कुछ नहीं कहा, केवल शांत दृष्टि से उसकी ओर देखा। कुछ ही क्षणों में वह साधु काँपने लगा और आँसू बहाने लगा।

बाद में उसने कहा — उनकी नज़रों में ऐसा दर्पण था, जिसमें मैंने अपनी ही दुर्बलता देख ली।”

उस दिन से वह साधु उनके साथ सेवा कार्य में जुड़ गया।

जल को दूध में परिवर्तित करना

एक बार, कुछ भक्त दूर से उनके दर्शन के लिए आए, पर उनके पास भेंट करने के लिए कुछ नहीं था। उनके पास केवल गंगा जल था। स्वामीजी ने वह जल अपने हाथ में लिया, और सबकी आश्चर्य भरी निगाहों के सामने वह दूध में बदल गया।

उन्होंने वह दूध वहीं उपस्थित गरीब बच्चों को पिला दिया और कहा —
भक्ति का मूल्य वस्तु में नहीं, भाव में होता है।”

इन सभी घटनाओं में एक बात स्पष्ट है — त्रैलंग स्वामी के लिए सिद्धियाँ कोई प्रदर्शन का साधन नहीं थीं। वे उनका उपयोग केवल करुणा, सेवा और आध्यात्मिक संदेश देने के लिए करते थे।

उनके चमत्कार मन को चकित करते हैं, पर उनका हृदय लोगों को बदल देता था।


 

अध्याय 7:

सामाजिक दृष्टिकोण और धार्मिक समरसता

त्रैलंग स्वामी केवल एक महायोगी या तपस्वी पुरुष नहीं थे – वे उस युग के ऐसे जीवन्त प्रकाशस्तंभ थे जिन्होंने न केवल आत्मोन्नति का मार्ग दिखाया, बल्कि समाज की रूढ़ियों को चुनौती देकर धार्मिक समरसता और सामाजिक समानता का उद्घोष किया। उनकी दृष्टि में धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीवन की वह कला थी जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है, भेदभाव नहीं करती।

यह अध्याय उनके सामाजिक दृष्टिकोण की गहराई, उनके व्यवहार के उदाहरणों और उनके धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को उद्घाटित करता है।

जाति-पाति से परे दृष्टिकोण

त्रैलंग स्वामी का जीवन एक जीती-जागती सामाजिक क्रांति था। वे ब्राह्मणों से लेकर शूद्रों तक, स्त्रियों से लेकर विदेशी नागरिकों तक – सभी के प्रति समभाव रखते थे। उस युग में जब जातिगत भेदभाव समाज की गहराई में समाया हुआ था, स्वामीजी का यह व्यवहार किसी साहसिक उद्घोष से कम नहीं था।

काशी के धार्मिक गलियारों में व्याप्त कट्टरता के बीच, एक घटना विशेष उल्लेखनीय है:

एक बार एक अछूत स्त्री को विश्वनाथ मंदिर में प्रवेश से रोका गया। जब त्रैलंग स्वामी को यह ज्ञात हुआ, तो उन्होंने न केवल उस महिला का हाथ थामा, बल्कि स्वयं उसे लेकर मंदिर में प्रवेश किया और उपस्थित जनसमूह से कहा –

"जो आत्मा में भेद करता है, वह स्वयं ईश्वर से दूर है।"

इस कथन में केवल दार्शनिकता नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना की शक्ति है। त्रैलंग स्वामी ने यह स्पष्ट कर दिया कि आत्मज्ञान की यात्रा जाति या जन्म से नहीं, आत्मचेतना से जुड़ी है।

स्त्री के प्रति सम्मान और समता

त्रैलंग स्वामी की स्त्री विषयक दृष्टि तत्कालीन सामाजिक सोच से बहुत आगे थी। जहाँ साधु-संन्यासियों के लिए स्त्री को 'माया', 'विघ्न' या 'बंधन' समझा जाता था, वहीं स्वामीजी की दृष्टि में स्त्री चैतन्य और शक्ति का प्रतीक थी।

उन्होंने कई बार स्त्रियों को साधना के लिए प्रेरित किया, उनकी जिज्ञासाओं को उत्तर दिया और उन्हें आत्म-साक्षात्कार के योग्य माना। उनके लिए आत्मा न स्त्री थी, न पुरुष – केवल शुद्ध चैतन्य।

एक बार जब किसी ने उनसे पूछा कि “क्या स्त्रियाँ मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं?”, उन्होंने उत्तर दिया –

क्या सूर्य के प्रकाश में स्त्री और पुरुष का भेद होता है? आत्मा का कोई लिंग नहीं होता।”

उनका यह दृष्टिकोण न केवल समता का प्रतीक था, बल्कि स्त्रियों की आध्यात्मिक भूमिका को मान्यता देने वाला भी था – एक अत्यंत आवश्यक सामाजिक संकेत।

सभी धर्मों का सम्मान

त्रैलंग स्वामी धार्मिक सहिष्णुता के जीवंत प्रतीक थे। वे मानते थे कि सत्य एक है, मार्ग अनेक हो सकते हैं। वे अपने आचरण से यह सिद्ध करते थे कि सभी धर्मों की आत्मा एक है – वह है ईश्वर की खोज और मानवता की सेवा।

एक बार एक मुस्लिम फकीर उनसे मिलने आया। त्रैलंग स्वामी ने उसे गले लगाकर कहा –

ईश्वर एक है, रास्ते अलग हो सकते हैं।”

उनका यह सरल वाक्य, एक गहरे आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश से युक्त था। वे न हिन्दू थे, न मुसलमान – वे मानवता के संत थे। उन्होंने कभी किसी धर्म का खंडन नहीं किया, बल्कि उनके बीच सेतु बन कर रहे।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब वे मंदिर में पूजा करते दिखे, तो मस्जिद के पास किसी फकीर से वार्ता करते भी। यह समरसता का भाव, भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का आदर्श रूप है।

भिक्षा की परंपरा और समानता

त्रैलंग स्वामी की भिक्षा लेने की शैली भी उनके समदृष्टि के सिद्धांत से जुड़ी थी। वे जब भी भिक्षा मांगते, तो यह नहीं देखते कि वह व्यक्ति कौन है – उसका धर्म, जाति या सामाजिक स्तर क्या है।

एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें भोजन अर्पित किया। कुछ लोगों ने आपत्ति जताई कि “विदेशी हाथ का अन्न अपवित्र है।”

त्रैलंग स्वामी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया –

जब अन्न से पेट भरता है, तब वह भोजन पवित्र हो जाता है।”

यह उत्तर केवल व्यावहारिक बुद्धिमत्ता का परिचायक नहीं, बल्कि उस आध्यात्मिक दृष्टिकोण का भी द्योतक है जिसमें स्नेह, श्रद्धा और समर्पण को महत्व प्राप्त है – बाह्य पहचान को नहीं।

सामाजिक मूल्यों पर उनका प्रभाव

त्रैलंग स्वामी का जीवन केवल एक व्यक्तिगत साधना की गाथा नहीं है, वह समाज को दिशा देने वाला प्रेरक आख्यान है। उनकी शिक्षाएँ और आचरण समाज के लिए संदेश थे – कि:

·       सेवा सबसे बड़ा धर्म है

·       जातिवाद और धार्मिक संकीर्णता आत्मविकास के मार्ग में बाधा हैं

·       आत्मा का कोई रंग, लिंग या भाषा नहीं होता

·       साधना का मार्ग केवल किसी एक वर्ग के लिए नहीं, सभी के लिए खुला है

वे मंदिर में भी समता का संदेश देते, मार्ग में भिक्षु को भी गले लगाते और समाज में उपेक्षित को भी आत्मीयता से अपनाते। उनके व्यक्तित्व में करुणा, साहस और समभाव की त्रिवेणी बहती थी।

निष्कर्ष: धर्म का उद्देश्य – समरसता, सेवा और समभाव

त्रैलंग स्वामी का जीवन सिद्ध करता है कि सच्चा धर्म वह नहीं जो केवल रीति-रिवाजों में बंधा हो, बल्कि वह है जो मानवता को जोड़े, भेद मिटाए और दिव्यता को प्रकट करे। वे केवल योगी नहीं, सामाजिक समरसता के सजीव प्रतीक थे।

आज जब संसार अनेक प्रकार के धार्मिक और सामाजिक विभाजनों से ग्रस्त है, त्रैलंग स्वामी का यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक हो उठता है –

"मनुष्य में आत्मा की दिव्यता को देखो, न कि उसकी जाति, धर्म या लिंग को।"

उनका जीवन एक वाणी है – सेवा की, समता की और सत्य की। यही उनका सबसे बड़ा चमत्कार है।


 

अध्याय 8:

समाधि, रहस्यमयी देहांत और लोकविज्ञान

त्रैलंग स्वामी के जीवन की भाँति उनका देहावसान भी एक रहस्यपूर्ण, आध्यात्मिक और लोकचेतना से ओत-प्रोत घटना थी। जहाँ एक ओर उनके जन्म का समय, स्थान और स्वरूप अब भी किंवदंतियों में घुला हुआ है, वहीं उनका महाप्रयाण भी साधारण मानव मृत्यु नहीं, बल्कि एक दिव्य प्रक्रिया के रूप में वर्णित होता है। इस अध्याय में हम उनके जीवन के अंतिम चरण, समाधि की प्रक्रिया और उनके पश्चात जनमानस में उत्पन्न लोकविज्ञान का विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे।

वाराणसी में अंतिम काल: मौन की अंतिम गहराई

त्रैलंग स्वामी के जीवन का अंतिम काल वाराणसी में व्यतीत हुआ — गंगा की धारा के सान्निध्य में, श्मशान भूमि की शांति में, और भक्तों की असीम श्रद्धा के बीच। ऐसा कहा जाता है कि वे 160 वर्ष से भी अधिक समय तक जीवित रहे। किंतु इतनी दीर्घ आयु के उपरांत भी उनके शरीर, वाणी या मन में वृद्धावस्था का कोई स्पष्ट संकेत नहीं था। उनके नेत्रों की दीप्ति, उनके मुख पर विद्यमान दिव्य आभा, और साधना में उनका लीन रहना — ये सब स्पष्ट संकेत थे कि वे देह से परे किसी और ही चेतना में स्थित थे।

उनके अंतिम दिनों में वे गहन मौन में प्रवेश करते गए। एक दिन उन्होंने अत्यंत शांत स्वर में कहा:

अब मैं मौन की अंतिम गहराई में जा रहा हूँ।”

यह कथन जितना सरल था, उतना ही गूढ़ भी। भक्तों ने इसे उनके महासमाधि की पूर्व-सूचना माना।

देहत्याग या महाप्रयाण: पंचगंगा घाट पर अंतिम ध्यान

1887 ईस्वी में त्रैलंग स्वामी ने पंचगंगा घाट पर ध्यानमग्न अवस्था में सार्वजनिक रूप से देहत्याग किया। गंगा के किनारे उनका वह अंतिम ध्यान साधारण ध्यान नहीं था — वह एक पूर्ण आत्म विलयन की प्रक्रिया थी। उपस्थित भक्तों ने देखा कि वे ध्यान मुद्रा में गहरे उतरते गए, और अंततः उनकी श्वास थम गई — किंतु मुख पर वही दिव्यता, वही शांति।

स्वामीजी के पार्थिव शरीर को पवित्र वस्त्रों में लपेटकर गंगा की धाराओं में प्रवाहित किया गया। किंवदंती कहती है कि उनका शरीर जल में डूबा नहीं, अपितु तैरता रहा। इस दृश्य को देखकर कई भक्त विह्वल हो उठे और उन्हेंजल में भी विजित” महायोगी मानने लगे।

कुछ अन्य परंपराओं में यह भी वर्णन है कि उनके पार्थिव शरीर को गंगा में प्रवाहित नहीं किया गया, बल्कि उन्हें घाट पर ही जल समाधि दी गई। इस विषय पर कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता, किंतु यह विरोधाभास स्वयं स्वामीजी के रहस्यात्मक स्वरूप को और अधिक गहराई देता है।

देहत्याग के बाद की घटनाएँ: अमरता का अनुभव

त्रैलंग स्वामी के महाप्रयाण के पश्चात ऐसी अनेक घटनाएँ घटित हुईं, जिन्हें केवल आस्था नहीं, अनुभव भी कहा गया। उनके भक्तों और अनुयायियों के अनुसार:

कई साधकों और श्रद्धालुओं को स्वप्न अथवा ध्यान में स्वामीजी के दर्शन हुए।

कुछ ने संकट की घड़ी में उन्हें प्रत्यक्ष रूप में उपस्थित पाया — जैसे कि वे आज भी कहीं से रक्षा कर रहे हों।

एक विशेष कथा के अनुसार, एक युवक गंगा में डूब रहा था, और तभी एक वृद्ध साधु ने आकर उसे बाहर खींच लिया। जब युवक ने होश में आकर उनका वर्णन किया, तो पहचानने पर ज्ञात हुआ कि वह त्रैलंग स्वामी ही थे।

ऐसी घटनाओं के चलते जनमानस में यह धारणा बलवती हो गई कि त्रैलंग स्वामी दैहिक रूप से तो विलीन हुए, परन्तु उनकी चेतना अमर है — वे सनातन योगी हैं।

लोकविज्ञान और श्रद्धा परंपरा: संत से लोकदेवता तक

त्रैलंग स्वामी की समाधि के उपरांत, उनके संबंध में अनेक लोककथाएँ, भजन, आख्यान और साधना परंपराएँ विकसित हुईं। उन्होंने केवल एक संत का स्थान नहीं पाया, बल्कि वे लोकदेवता, महायोगी, और जीवंत शिव के रूप में पूजे जाने लगे।

वाराणसी के घाटों पर आज भी बुजुर्ग जन उनकी कथाएँ सुनाते हैं — विशेषतः उनकी समाधि, चमत्कार और साधना की लीलाओं की।

तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में, जहाँ उनका प्रारंभिक जीवन बीता, वहाँ भी कई स्थानों पर त्रैलंग स्वामी की पूजा होती है।

बंगाल के कई साधु-संन्यासियों ने उन्हें अवतारी पुरुष माना है — एक ऐसा व्यक्ति जो ब्रह्म रूप में जन्म लेकर मनुष्यों के बीच आया।

उनकी छवि लोक साहित्य, साधु-संन्यासी परंपरा, और हिन्दू योग दर्शन में अद्वितीय आदर्श बन गई।

यह श्रद्धा केवल अंधभक्ति नहीं थी, बल्कि अनुभव पर आधारित विश्वास थी।

निष्कर्ष: समाधि से परे शाश्वत चेतना

त्रैलंग स्वामी का जीवन केवल एक योगी का जीवन नहीं था — वह एक साक्षात आध्यात्मिक यथार्थ था। उनका देहत्याग मृत्यु नहीं था, अपितु अहं के पूर्ण लय का महापर्व था। उन्होंने यह सिखाया कि आत्मा अजर, अमर और अनश्वर है। उनके जीवन का प्रत्येक पक्ष — जन्म, साधना, चमत्कार, दर्शन और अंत में समाधि — यह सिद्ध करता है कि उन्होंने शरीर के बंधनों को केवल धारण नहीं किया, बल्कि आवश्यकता के अनुसार त्याग भी दिया।

त्रैलंग स्वामी आज भी भारतीय साधना-संस्कृति में एक जाग्रत सत्ता के रूप में विद्यमान हैं। वे एक युगपुरुष थे, और उनके प्रति श्रद्धा केवल इतिहास नहीं, जीवंत परंपरा है।


अध्याय 9:

विरासत, स्मारक और आधुनिक युग में प्रभाव

त्रैलंग स्वामी (1607–1887) केवल एक ऐतिहासिक व्यक्ति या महान योगी नहीं थे; वे एक जीवंत आध्यात्मिक चेतना थे, जिनकी उपस्थिति आज भी अध्यात्म और साधना के पथिकों को दिशा देती है। उनका जीवन, जो बाह्य आडंबरों से रहित किंतु आंतरिक दिव्यता से परिपूर्ण था, आज भी उन लोगों के लिए प्रेरणा है जो आत्मज्ञान और ब्रह्मसाक्षात्कार की खोज में हैं।

आध्यात्मिक विरासत

त्रैलंग स्वामी ने किसी संस्थान, परंपरा या पंथ की स्थापना नहीं की। उनका जीवन ही उनकी शिक्षा थी — मौन, प्रेम, करुणा और ब्रह्म के साक्षात्कार की जीवंत अभिव्यक्ति। उनके प्रमुख सिद्धांतों में शामिल हैं:

अद्वैत वेदांत का निर्गुण अनुभव: उन्होंने यह नहीं कहा कि ईश्वर अलग है, बल्कि यह दिखाया कि ईश्वर स्वयं में निहित है। उनके जीवन का हर क्षण इस अनुभूति का साक्ष्य था।

सन्यास का शुद्धतम स्वरूप: उन्होंने वस्त्र, व्यवहार, और स्वाभाविक विरक्ति से सन्यास को परिभाषित किया — न केवल संसार का त्याग, बल्कि अहंकार और द्वैत का समर्पण।

मौन सेवा और करुणा: उन्होंने उपदेशों की बजाय मौन में ही प्रेम बाँटा। साधकों, रोगियों और अज्ञात जनों की सेवा करते हुए वे कभी स्वयं को केंद्र में नहीं रखते थे।

मानव मात्र में ईश्वर-दर्शन: उनके लिए हर व्यक्ति शिव था — चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, ज्ञानी हो या अज्ञानी। इस समदर्शिता ने उन्हें एक युगद्रष्टा बना दिया।

इन आदर्शों ने अनेक संतों, साधकों, और सामान्य जन को एक वैकल्पिक जीवन दृष्टिकोण प्रदान किया जो आज भी प्रासंगिक है।

स्मारक और आश्रम

त्रैलंग स्वामी ने जीवन भर आवागमन और व्रजनशील जीवन अपनाया, परंतु काशी में उनके अंतिम निवास ने एक आध्यात्मिक केंद्र का रूप ले लिया है।

पंचगंगा घाट, वाराणसी: यहाँ स्थित उनका आश्रम और समाधि स्थल आज भी श्रद्धालुओं और साधकों के लिए एक प्रेरणा-स्थल है। यह स्थान न केवल एक समाधि है, बल्कि एक तीर्थ है जहाँ ध्यान, मौन और आत्मचिंतन की ऊर्जा आज भी अनुभूत होती है।

अन्य स्मृति स्थल: वाराणसी के कई घाटों और मंदिरों से उनके जीवन की कथाएं जुड़ी हैं — जैसे कि त्रैलंग कुंड, जहां वे स्नान करते थे; और वे स्थान जहाँ उन्हें ध्यानावस्था में देखा गया।

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश: जहाँ उनके जीवन के प्रारंभिक वर्षों को 'त्रैलंग स्वामी' के रूप में स्मरण किया जाता है। वहाँ भी कुछ स्थानीय मंदिरों और आश्रमों में उन्हें श्रद्धा अर्पित की जाती है।

इन स्मारकों ने त्रैलंग स्वामी की शारीरिक अनुपस्थिति के बावजूद उनकी आध्यात्मिक उपस्थिति को जीवंत बनाए रखा है।

आधुनिक संतों पर प्रभाव

त्रैलंग स्वामी के जीवन और व्यक्तित्व का प्रभाव भारतीय संत परंपरा की अनेक शाखाओं में देखा जा सकता है। कुछ प्रमुख उदाहरण:

स्वामी विवेकानंद: जिन्होंने त्रैलंग स्वामी को "योगियों का सम्राट" कहा। विवेकानंद ने उन्हें "अद्वैत वेदांत के मूर्तिमान रूप" के रूप में सम्मानित किया।

परमहंस योगानंद: अपनी अमर कृति Autobiography of a Yogi में त्रैलंग स्वामी को एक चमत्कारी संत और दिव्य आत्मा के रूप में वर्णित किया। योगानंद की शैली में उनका वर्णन एक आदर्श योगी के रूप में होता है।

रामकृष्ण परमहंस: उन्हें त्रैलंग स्वामी में साक्षात् शिव का अवतार दिखाई देता था। यह धारणा उनके अनुयायियों तक भी पहुँची और उन्हें एक अद्वितीय दिव्य पुरुष के रूप में मान्यता मिली।

इस प्रभाव की गहराई इस बात से मापी जा सकती है कि त्रैलंग स्वामी का नाम केवल श्रद्धा से नहीं, एक जीवंत प्रेरणा के रूप में स्मरण किया जाता है।

त्रैलंग स्वामी साहित्य और शोध

उनकी शिक्षाएँ तो मौन थीं, परंतु उनका जीवन और व्यक्तित्व शोध का विषय अवश्य बना:

त्रैलंग स्वामी चरित”यह विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है, विशेषतः हिंदी, तेलुगु और बंगला में। इन ग्रंथों में लोककथाएँ, संत-चरित और शिष्य-श्रुत प्रमाण सम्मिलित हैं।

शोध और अध्ययन: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, संदीपनि विद्यापीठ, तथा अन्य संस्कृत संस्थानों में उन पर आधारित शोध कार्य हुए हैं। विद्वानों ने उन्हें अघोर तत्त्व, निराकार उपासना, और योग-महासिद्धियों के माध्यम से विश्लेषित किया है।

आधुनिक लेखन: भारत और विदेशों में त्रैलंग स्वामी पर अनेक लेख, शोध-पत्र और ब्लॉग प्रकाशित हुए हैं जो उनकी प्रासंगिकता को उजागर करते हैं।

इस साहित्य ने त्रैलंग स्वामी को जनसाधारण से लेकर विद्वान वर्ग तक पहुँचाया है।

आज के युग में प्रासंगिकता

आज का युग सूचना और गति का है, परंतु आंतरिक शांति का अभाव भी इसी युग की पहचान है। ऐसे में त्रैलंग स्वामी की शिक्षाएँ और जीवन दृष्टि एक अमूल्य धरोहर हैं:

आत्मज्ञान और ध्यान का अभ्यास: वे ध्यान के माध्यम से बाह्य से अंतः की यात्रा के प्रतीक थे।

मानवता का आदर: उन्होंने व्यक्ति के धर्म, जाति या भाषा को नहीं, उसकी आत्मा को देखा।

सरल जीवन, उच्च विचार: वे विलास और संग्रह की अपेक्षा त्याग और निर्लिप्तता के प्रतीक थे।

मौन का महत्व: उनके मौन जीवन ने यह सिद्ध किया कि शब्दों से अधिक प्रभावशाली मौन हो सकता है।

इन सब गुणों में वह समाधान छिपा है जिसकी आज की आत्मविस्मृत और अशांत मानवता को आवश्यकता है।

निष्कर्ष: एक जीवंत विरासत

त्रैलंग स्वामी की विरासत मंदिरों की दीवारों या पुस्तकों के पृष्ठों तक सीमित नहीं है। वे एक दर्पण हैं जो आज के युग को उसकी आत्मा का साक्षात्कार कराते हैं। उन्होंने दिखाया कि साधना केवल हिमालय या कुटियों में नहीं, जनसामान्य के बीच रहकर भी की जा सकती है।

उनकी समाधि एक अंत नहीं, एक आरंभ है — उस साधना का, जो आत्मा को ब्रह्म से जोड़ती है। वे भूतकाल के नहीं, सतत वर्तमान और प्रेरणामय भविष्य के संत हैं।


 

अध्याय 10:

त्रैलंग स्वामी – योग, ज्ञान और करुणा के अमर प्रतीक

त्रैलंग स्वामी का जीवन किसी एक परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता। वे न तो केवल योगी थे, न ही मात्र भक्त या संत। वे जीवन की उन उच्चतम संभावनाओं के जीवंत प्रतीक थे, जो मनुष्यत्व को आत्मत्व में रूपांतरित कर सकती हैं। उनकी उपस्थिति, जीवनशैली और शिक्षाएँ — सभी भारत की सनातन साधना परंपरा की महानतम उपलब्धियों में गिनी जाती हैं।

त्रैलंग स्वामी ने अपने सम्पूर्ण जीवन को तप, ध्यान, मौन और करुणा के माध्यम से उस दिव्यता का स्पर्श दिया, जिसे अधिकांश लोग केवल ग्रंथों में पढ़ते हैं। वे अद्वैत वेदान्त के सिद्ध सिद्धान्तों को न केवल जानते थे, बल्कि उन्होंने उन्हें जिया। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि आत्मज्ञान कोई काल्पनिक स्थिति नहीं, अपितु एक व्यावहारिक उपलब्धि है — यदि व्यक्ति उसे पाने के लिए स्वयं को समर्पित कर दे।

एक जीवन, अनेक रूप

त्रैलंग स्वामी के व्यक्तित्व की बहुआयामीता ही उन्हें विलक्षण बनाती है। वे ऐसे योगी थे, जो गंगा की गहराइयों में समाधिस्थ हो जाया करते थे — घंटों तक जल में अवस्थित रहना उनके लिए सामान्य बात थी। यह योगबल और प्राणायाम की वह सिद्धि थी, जिसे आज का विज्ञान भी चुनौती मानता है।

पर वहीं वे एक भक्त भी थे — गंगा को उन्होंने मात्र नदी नहीं, बल्कि माँ के रूप में पूजित किया। उनके जीवन में बारंबार यह दृष्टिगोचर होता है कि वे सच्चे भक्त की तरह गंगा के तट पर बैठते, जल अर्पण करते और कई बार माँ गंगा से संवाद भी करते प्रतीत होते।

वे एक गुरु भी थे — परंतु मौन के। उन्होंने अनेक शिष्यों को मौन में दीक्षा दी। उनका यह मौन, शब्दों की परिधि से बाहर की शिक्षा थी — जो अंतःकरण से अंतःकरण तक प्रवाहित होती थी। आज भी उनके कुछ प्रमुख शिष्य (जैसे श्री स्वामी भीम भगवान) उनके जीवन-दर्शन को जीवित रखते हैं।

और वे एक लोकगुरु भी थे — जो सामान्य गृहस्थों से संवाद करते, उनके व्यवहारों में दिव्य संकेत भर देते। उनके छोटे-छोटे कार्य, जैसे एक निर्धन को अन्न देना, या एक बालक से मुस्कुराकर बात करना, लोगों के लिए जीवन की गूढ़ शिक्षाएँ बन जाती थीं।

त्रैलंग स्वामी से जीवन को क्या सीखें

मौन की शक्ति

त्रैलंग स्वामी का मौन केवल शब्दों का अभाव नहीं, अपितु एक सघन संवाद था — आत्मा से आत्मा का। वे कहते नहीं थे, परन्तु उनकी आँखें, उनकी उपस्थिति, उनके हाव-भाव, बहुत कुछ कह जाते थे। आज के शोरपूर्ण युग में यह मौन, आत्मचिंतन और साधना की अमूल्य प्रेरणा है।

करुणा की पराकाष्ठा

कहते हैं कि एक बार किसी ने उन्हें विष दे दिया, पर उन्होंने उसे भी प्रेमपूर्वक स्वीकार किया — यह केवल आध्यात्मिक सहिष्णुता नहीं, अपितु करुणा की चरम अवस्था थी। वे उस दृष्टिकोण के प्रतिनिधि थे, जहाँ कोई भी शत्रु नहीं, सब ईश्वर के अंश हैं।

धर्म की व्यापकता

त्रैलंग स्वामी ने न किसी धर्म को छोटा कहा, न किसी जाति को नीचा। वे हर धर्म, हर सम्प्रदाय में परमात्मा के दर्शन करते थे। मुसलमान, ईसाई, ब्राह्मण, शूद्र – सभी उनके पास आते, और वे सबको एक ही दृष्टि से देखते। यह दृष्टि हमें समावेश और सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाती है।

आत्मसंयम और तपस्या

उनका जीवन कठोर तप का जीवन था। शरीर को वे आत्मा के अधीन कर चुके थे — चाहे नग्न अवस्था में रहना हो, चाहे दिनों तक उपवास रखना, या कठिन योगिक अभ्यासों में लीन रहना — उन्होंने शरीर को साधन बना दिया, साध्य नहीं।

उनकी उपस्थिति आज भी जीवित है

त्रैलंग स्वामी का शरीर यद्यपि 1887 में पंचतत्वों में विलीन हो गया, पर उनकी चेतना आज भी भारतवर्ष में, विशेषकर काशी के घाटों पर, गंगा की धारा में, साधकों के ध्यान में और भक्तों की श्रद्धा में स्पंदित होती है।

आज भी:

·       उनके समाधि स्थल पर हज़ारों भक्त नत मस्तक होते हैं।

·       साधु और संन्यासी उनके जीवन को उदाहरण मानकर साधना करते हैं।

·       उनके चमत्कारों और शिक्षाओं को लेकर कथाएँ, पुस्तकें और प्रवचन होते रहते हैं।

और भारत की संत परंपरा में वे आदर्श पुरुष के रूप में स्थापित हैं — एक ऐसे संत, जिन्होंने सिद्धि को सेवा में रूपांतरित किया।

उपसंहार

त्रैलंग स्वामी केवल एक ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, वे चेतना का प्रतीक हैं। उन्होंने दिखाया कि यदि मनुष्य अपने जीवन को तप, भक्ति, और आत्मज्ञान के मार्ग पर समर्पित करे, तो वह दिव्यता को प्राप्त कर सकता है।

उनका जीवन एक साधक के लिए संकल्प का दीप है — जो निरंतर साधना में अग्रसर करता है।

एक भक्त के लिए श्रद्धा का गंगाजल है — जो हृदय को शुद्ध करता है।
और एक जिज्ञासु के लिए ज्ञान का महासागर है — जिसमें उतरकर आत्मबोध की प्राप्ति संभव है।


 

परिशिष्ट 1:

त्रैलंग स्वामी के प्रेरक वचन

 त्रैलंग स्वामी (Trailanga Swami) भारत के महानतम योगियों में से एक माने जाते हैं। वे 18वीं से 19वीं सदी के बीच वाराणसी में सक्रिय रहे और अपने तप, ज्ञान, मौन, एवं अलौकिक शक्तियों के लिए प्रसिद्ध थे। उनके कथन आज भी साधकों और seekers को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते हैं। नीचे त्रैलंग स्वामी के कुछ प्रेरक वचनों का विस्तृत व्याख्या सहित विवेचन किया गया है: त्रैलंग स्वामी (1607–1887) भारत के महान योगी, अद्वैत वेदांत के सिद्ध संत, तथा काशी (वाराणसी) के तपस्वी महापुरुष माने जाते हैं। उनका जीवन और वचन आज भी साधकों के लिए प्रकाशस्तंभ हैं। नीचे उनके कुछ प्रेरक वचनों का विस्तार से विवेचन किया गया है:

 जो मौन को समझ गया, वह ब्रह्म को पा गया।”

विस्तार:
त्रैलंग स्वामी मौन को साधना की उच्च अवस्था मानते थे। मौन केवल वाणी का न होना नहीं, बल्कि अंतःकरण की शांति है। जब मन की चंचलता समाप्त होती है, तब आत्मा ब्रह्म से एक हो जाती है। मौन की गहराई में ही आत्मबोध संभव है। इसलिए, जिसने मौन का रहस्य जान लिया, उसने ब्रह्म की अनुभूति कर ली।

 जब तक देह सत्य लगती है, आत्मा भ्रमित रहती है।”

विस्तार:
यह कथन अद्वैत वेदांत की मूल भावना को दर्शाता है। जब तक हम अपने को शरीर मानते हैं, आत्मा की पहचान संभव नहीं। देह नश्वर है, आत्मा अमर। देह को सत्य मानना आत्मा के भ्रम में रहने जैसा है। आत्मज्ञान तभी संभव है जब हम देह की सीमाओं से ऊपर उठें।

धर्म वह है जो सबको जोड़ता है – जो तोड़े, वह अधर्म है।”

विस्तार:
धर्म का मूल उद्देश्य है–समाज में प्रेम, समरसता और एकता स्थापित करना। यदि किसी विचार, परंपरा या कर्म से भेद, घृणा या अलगाव उत्पन्न होता है, तो वह धर्म नहीं, अधर्म है। त्रैलंग स्वामी के अनुसार सच्चा धर्म वह है जो सबको जोड़ता है, चाहे वह किसी भी संप्रदाय, जाति या भाषा का हो।

 सेवा, ध्यान से ऊँचा कोई योग नहीं।”

विस्तार:
सेवा को त्रैलंग स्वामी ने योग से भी ऊँचा बताया, क्योंकि सेवा में निस्वार्थ भाव, समर्पण और करुणा समाहित होती है। जब व्यक्ति ईश्वर को हर जीव में देखता है, तब सेवा स्वयं ध्यान बन जाती है। निःस्वार्थ सेवा से ही मन की शुद्धि होती है और योग की सच्ची अवस्था प्राप्त होती है।

गुरु वही है, जो तुम्हें स्वयं से मिला दे।”

विस्तार:
गुरु का कार्य केवल शास्त्र पढ़ाना नहीं, बल्कि शिष्य को उसके सत्य स्वरूप से जोड़ना है। सच्चा गुरु वह है जो अहंकार को नष्ट कर आत्मा का बोध कराए। त्रैलंग स्वामी के अनुसार गुरु केवल मार्गदर्शक नहीं, स्वयं एक पुल होते हैं– आत्मा से परमात्मा तक पहुँचाने का।

सत्य ही ईश्वर है।”

विस्तार:
यह वाक्य त्रैलंग स्वामी की अद्वैत साधना की मूल भावना को व्यक्त करता है। ईश्वर को किसी रूप, नाम या मूर्ति में बाँधा नहीं जा सकता – वह तो शुद्ध सत्य है। जो सत्य को पहचान लेता है, वह ईश्वर को पहचान लेता है। सत्य की खोज ही साधक को ईश्वर तक पहुँचाती है।

योग वह है जो आत्मा को परमात्मा से मिलाता है।”

विस्तार:
त्रैलंग स्वामी के अनुसार योग केवल आसनों या शारीरिक क्रियाओं तक सीमित नहीं है। योग आत्मा और परमात्मा के मिलन की प्रक्रिया है। जब मन शांत होता है, और इंद्रियाँ नियंत्रित होती हैं, तब योग की स्थिति आती है। यह मिलन ही मोक्ष है।

 शिवत्व केवल पूजा में नहीं, व्यवहार में भी हो।”

विस्तार:
सच्ची शिव-भक्ति केवल पूजा, मंत्र और व्रतों तक सीमित नहीं होती। शिवत्व का अर्थ है–करुणा, क्षमा, विवेक और त्याग को जीवन में उतारना। त्रैलंग स्वामी स्वयं शिव के अवतार माने जाते थे और उनके जीवन में यह शिवत्व व्यवहार में प्रकट होता था।

साधना का फल तप से नहीं, समर्पण से मिलता है।”

विस्तार:
तप, नियम और कठिन साधनाएँ तभी फलदायक होती हैं जब उनमें पूर्ण समर्पण हो। त्रैलंग स्वामी के अनुसार, अहंकार छोड़कर जब साधक स्वयं को पूर्णतः ईश्वर के चरणों में अर्पित कर देता है, तब साधना सफल होती है। केवल कठोर नियमों से नहीं, भावपूर्ण समर्पण से आत्मसाक्षात्कार होता है।


परिशिष्ट 2

जीवन से जुड़ी लघु कथाएँ

जल मेरा स्वरूप है

एक बार त्रैलंग स्वामी गंगा नदी में घंटों तक बिना थके तैरते रहे। उनके शिष्य किनारे पर खड़े चिंतित हो उठे — “स्वामीजी, आप इतने समय तक जल में कैसे रह सकते हैं?”

स्वामी शांत भाव से मुस्कराए और बोले —

जल मेरा ही स्वरूप है। जब भेद मिट जाता है, तब जल और मैं अलग नहीं रहते। यह तत्व की अनुभूति है।”

यह कहकर उन्होंने सबको आत्मा और ब्रह्म के एकत्व का पाठ पढ़ाया।

चोर भी मेरा ही अंश है

वाराणसी में एक रात एक चोर ने स्वामीजी के वस्त्र चुरा लिए। प्रातः जब वह पकड़ा गया और लोगों ने उसे दंड देने की बात की, स्वामी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा —

उसे दंड क्यों? वह भी मेरे ही अंश का है। जिसने लिया, वह उसी का था। मेरे पास कुछ भी अपना नहीं।”

यह सुनकर चोर की आंखों में आंसू भर आए और वह स्वामी का शिष्य बन गया।

शिव सदा तुम्हारे पास हैं

एक दिन एक भक्त दुःख से व्याकुल होकर स्वामीजी के पास आया। उसने कांपते स्वर में कहा — “स्वामीजी, मैंने शिव को बहुत पुकारा, पर वे नहीं आए।”
स्वामीजी ने उसे स्नेह से देखा और बोले —

जब तुम शिव को सच्चे मन से पुकारते हो, तब शिव स्वयं तुम्हारे भीतर प्रकट होते हैं। तुम्हारा हृदय ही शिव का धाम है।”

भक्त की आंखें खुल गईं और उसके भीतर शांति उतर आई।

मौन ही उपदेश है

एक बार एक विद्वान स्वामीजी से तर्क करने आया। उसने अनेक शास्त्रों की बातें कीं, पर स्वामी मौन रहे।

अंत में विद्वान झुंझलाकर बोला — “आप उत्तर क्यों नहीं देते?”
स्वामीजी ने नेत्र मूंदे हुए उत्तर दिया —

जहाँ मौन बोलता है, वहाँ शब्द मौन हो जाते हैं। सत्य का अनुभव वाणी से नहीं होता।”

विद्वान नतमस्तक होकर चला गया।

भिक्षा और अभयदान

एक वृद्धा रोज़ स्वामी को भिक्षा देती थी। एक दिन जब उसके पास कुछ न था, उसने रोते हुए कहा — “आज मैं कुछ नहीं दे सकी।”

स्वामी मुस्कराए और बोले —

आज तुमने मुझे सबसे मूल्यवान दान दिया — प्रेम और समर्पण। भिक्षा वस्तु की नहीं, भाव की होती है।”

गुरु वही जो दृष्टि दे

एक नेत्रहीन युवक स्वामी के पास आया और बोला — “क्या आप मुझे दृष्टि दे सकते हैं?”

स्वामी ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा —

बाहरी आँखें तो संसार दिखाती हैं, पर अंतर की आँख जाग जाए, तो ईश्वर दिखता है। तू देख, तू सब कुछ देख सकता है।”
वह युवक ध्यान में डूब गया और धीरे-धीरे उसके भीतर का अंधकार मिटने लगा।


 

परिशिष्ट 3:

त्रैलंग स्वामी पर लिखित प्रमुख ग्रंथ

त्रैलंग स्वामी चरित्र’ – हिंदी

लेखक: श्री शंकरानंद

यह ग्रंथ त्रैलंग स्वामी के जीवन और उनकी आध्यात्मिक साधना पर आधारित एक महत्वपूर्ण हिंदी जीवनी है। लेखक ने त्रैलंग स्वामी के चमत्कारों, तपस्या, और उनके जीवन के प्रेरणादायक प्रसंगों का सरल भाषा में वर्णन किया है। यह पुस्तक साधकों के लिए प्रेरणा का स्रोत मानी जाती है।

‘The Sage of Varanasi’ – English

Author: Paul Hourihan

यह पुस्तक त्रैलंग स्वामी के व्यक्तित्व और आध्यात्मिक उपलब्धियों को पश्चिमी पाठकों के लिए सरल एवं प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है। लेखक ने उनके जीवन दर्शन, ज्ञानयोग तथा साधना के पहलुओं को गहराई से विश्लेषित किया है, जिससे अंतरराष्ट्रीय पाठकों को स्वामी जी के आध्यात्मिक योगदान को समझने में सहायता मिलती है।

‘Avadhut: The Life of Trailanga Swami’

Author: Swami Sivananda Saraswati

स्वामी शिवानंद द्वारा रचित यह ग्रंथ त्रैलंग स्वामी के "अवधूत" स्वरूप को उजागर करता है। इसमें उनके जीवन के अलौकिक पहलुओं, सिद्धियों और तपस्वी जीवनशैली का विवेचन है। यह पुस्तक उनके आध्यात्मिक स्वरूप की एक गंभीर और गूढ़ प्रस्तुति करती है।

बंगाली स्रोत: 'एक त्रिकोणीय पति की जीवन कहानी'

प्रकाशक: श्री रमाकृष्ण मिशन

यह बंगाली भाषा में उपलब्ध ग्रंथ त्रैलंग स्वामी के जीवन पर आधृत एक प्रामाणिक स्रोत है। रमाकृष्ण मिशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक बंगाली पाठकों के लिए त्रैलंग स्वामी की जीवनी, उपदेश, और आध्यात्मिक यात्रा को निकटता से समझने का माध्यम प्रदान करती है।


 

परिशिष्ट 4:

शब्दावली (Glossary)

अद्वैत वेदांत का प्रमुख सिद्धांत, जिसके अनुसार आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। उल्लेख: अध्याय 5, स्वामीजी की आध्यात्मिक दृष्टि।

आसन योग की स्थिर और सुखद स्थिति, ध्यान व प्राणायाम के लिए शरीर को तैयार करने का अभ्यास। उल्लेख: अध्याय 4, वाराणसी में ध्यान-आसन।

आत्मज्ञान आत्मा के स्वरूप और उसके परमात्मा से एकत्व का बोध। उल्लेख: अध्याय 6, स्वामीजी का मौन तप।

आवधूत वह उच्चकोटि का योगी जो समाज के नियमों, बाहरी आडंबरों और सांसारिक बंधनों से पूर्णतः मुक्त होता है। अवधूत शरीर, मन और आत्मा की सीमाओं से परे जाकर शुद्ध चेतना में स्थित होता है। उल्लेख: अध्याय 7, स्वामीजी के जीवन-आदर्श।

काशी उत्तर प्रदेश का वाराणसी नगर, मोक्षधाम के रूप में प्रसिद्ध। स्वामीजी का अधिकांश जीवन यहीं बीता। उल्लेख: अध्याय 3

गुरु आध्यात्मिक मार्गदर्शक जो शिष्य को ज्ञान और साधना की दिशा देता है। उल्लेख: अध्याय 2, गुरु-शिष्य परंपरा।

तंत्र साधना, मंत्र, यंत्र, ध्यान और विशेष अनुष्ठानों का रहस्यमय और गूढ़ विद्याओं का समुच्चय, जो साधक की आध्यात्मिक शक्ति जाग्रत करने में सहायक होता है। उल्लेख: अध्याय 5 और परिशिष्ट 4

ध्यान मन को एकाग्र कर परमात्मा में लीन होने की साधना। उल्लेख: अध्याय 4, स्वामीजी का ध्यान-साधना।

प्राणायाम श्वास नियंत्रण के अभ्यास द्वारा प्राण-शक्ति का संचय और शुद्धि। उल्लेख: अध्याय 5, योगिक अनुशासन।

भक्ति ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव। उल्लेख: अध्याय 6, उपदेशों में भक्ति का महत्व।

मणिकर्णिका घाट गंगा तट पर वाराणसी का प्रमुख घाट, ध्यान और प्रवचन के लिए प्रसिद्ध। उल्लेख: अध्याय 3

मोक्ष जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति की अवस्था। उल्लेख: अध्याय 6, स्वामीजी के उपदेश।

वैराग्य संसारिक इच्छाओं और मोह से विमुख होकर आत्मिक मुक्ति की ओर बढ़ना। उल्लेख: अध्याय 1

वेदांत उपनिषदों पर आधारित भारतीय दर्शन का प्रमुख मत। उल्लेख: अध्याय 5, स्वामीजी की साधना।

योगसूत्र पतंजलि द्वारा रचित योग दर्शन का मूल ग्रंथ। उल्लेख: अध्याय 4, योगिक जीवन।

लोकश्रुति लोकमान्यताओं और कथाओं पर आधारित परंपरागत आख्यान। उल्लेख: अध्याय 1 और 7, चमत्कार प्रसंग।

साधना नियमित और अनुशासित आध्यात्मिक अभ्यास, जो आत्म-विकास, आंतरिक शुद्धि और ईश्वर की अनुभूति के लिए किया जाता है। इसमें ध्यान, मंत्र-जप, योग, उपवास या गुरु-निर्देश पर आधारित अनुष्ठान शामिल हो सकते हैं। उल्लेख: परिशिष्ट 4 और अध्याय 4

समाधि ध्यान की चरम अवस्था, जहाँ साधक की चेतना पूर्णतः आत्मा या ब्रह्म के साथ एकीकृत हो जाती है। यह योग की अंतिम अवस्था है। उल्लेख: परिशिष्ट 4 और अध्याय 5

शिवत्व शिव के गुणों (परम शांति, जागरूकता, निःस्वार्थता) को अपने भीतर अनुभव करना और जीवन में धारण करना। उल्लेख: परिशिष्ट 4 और अध्याय 6

सिद्धि योग या साधना से प्राप्त विशेष आध्यात्मिक शक्ति। उल्लेख: अध्याय 7, स्वामीजी के चमत्कार।

घाट नदी किनारे बने पक्के सीढ़ीनुमा स्थल। उल्लेख: अध्याय 3, वाराणसी के घाट।

उपनिषद वेदों के अंतर्गत आने वाले दार्शनिक ग्रंथ, आत्मा और ब्रह्म के ज्ञान का स्रोत। उल्लेख: अध्याय 5


 

परिशिष्ट 5:

संदर्भ ग्रंथ सूची

इस पुस्तक में वर्णित घटनाओं, प्रसंगों और विचारों को संकलित करने में निम्नलिखित ग्रंथों, शास्त्रों और जीवनियों से सामग्री एवं प्रेरणा ली गई है। सभी उद्धरण और विवरण को यथासंभव सत्य, प्रामाणिक और सुसंगत रखने का प्रयास किया गया है।

1. शंकरानंद, त्रैलंग स्वामी चरित्र, 1952, वाराणसी प्रेस

2. Sivananda Saraswati, Avadhut: The Life of Trailanga Swami, Divine Life Society

3. श्री रमाकृष्ण मिशन, कोलकाता – त्रैलंग स्वामी पर विशेषांक, 1984

योग और साधना

1.  स्वामी सत्यानंद सरस्वती, भारतीय योगियों की गाथाएँ

2.  स्वामी शिवानंद, ध्यान योग और समाधि

3.  पतंजलि योगसूत्रसाधना-पाद और समाधि-पाद

4.  हठयोग प्रदीपिका, स्वामी स्वरूपानंद की टीका सहित

5.  गोरखनाथ सिद्धांत, नाथ परंपरा के मूल उपदेश

तंत्र और तांत्रिक दर्शन

6.  आचार्य अभिनवगुप्त, तंत्रालोककश्मीर शैव तंत्र का मूल ग्रंथ

7.  विज्ञान भैरव तंत्रशिव-शक्ति संवाद आधारित ध्यान विधियाँ

8.  रुद्रयामल तंत्रतांत्रिक साधना के रहस्य

9.  स्वामी निश्चलानंद सरस्वती, तांत्रिक योग की भूमिका

शिवत्व और अद्वैत दर्शन

10.          शिवसूत्रकश्मीर शैव दर्शन का आधार

11.          आदि शंकराचार्य, विवेकचूडामणि

12.          योग वासिष्ठआत्मज्ञान और शिव-तुल्यता पर उपदेश

13.          श्रीमद्भागवत महापुराणभक्ति एवं ज्ञान में शिव का स्वरूप

अवधूत भाव और जीवनी संदर्भ

14.          परमहंस योगानंद, Autobiography of a Yogi — जिसमें त्रैलंग स्वामी का श्रद्धापूर्वक वर्णन

15.          काशी के योगी – त्रैलंग स्वामी, हिंदी जीवनी संकलन

16.          अवधूत गीता, श्री दत्तात्रेय रचित

17.          नव योगेंद्र संवाद, श्रीमद्भागवत महापुराण — एकादश स्कंध

18.  स्वामी राम, Living with the Himalayan Masters — अवधूत समान योगियों के जीवन प्रसंग

नोट: सभी संदर्भ मूल प्रकाशनों एवं मान्य संस्करणों से लिए गए हैं। इनका उद्देश्य केवल आध्यात्मिक, शैक्षिक एवं शोध प्रयोजनों के लिए जानकारी प्रदान करना है।

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