SREE GEETA YOG PRAKASH
श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय - 4
अध्याय - 4
ज्ञान - कर्म - संन्यास योग
ज्ञान कर्म संन्यास योंग का, वर्णन बहुत पुराना ।
पहले प्रभु ने रवि को सुनाया, तनय मनु ने जाना ।।
इक्ष्वाकु थे तनय मनु के मनु ने उन्हें बताया ।
इसी भांति राजश्री सभी और मुनियों ने भी पाया ।।
फिर से भगवन ने अर्जुन को, यही ज्ञान बतलाया ।
हुआ प्रचार पुन: तन मन से, हम सबने भी पाया ।।
बार - बार के जन्म - मरण का, चक्र सदा चलता है ।
भगवत कृष्ण महायोगेश्वर, उनकी स्मृति नित नूतन ।
मायापति माया वश में रख, करे कार्य सम्पादन ।।
माया के वश जन्म - मरण से, रहते नर अज्ञानी ।
मायापति का जन्म दिव्य, वे अमरात्मा के ज्ञानी।।
आत्माराम का ज्ञान प्रत्यक्ष किया, हो जिस मानव ने ।
उसका जन्म - मरण नाटक है, नही डरे वह भव में ।।
केवल बुद्धि लगाने से, यह ज्ञान नही हो पाता ।
श्रवण, मनन, निदिव्यास करे, तब जाकर अनुभव पाता।।
बिना समाधिजन्य अनुभव के, आत्म - ज्ञान दुर्लभ है ।
बिना सतगुरु, कौन बतावे, कैसे होगा दुर्लभ है ।।
बिना सतगुरु, कौन बतावे, कैसे होगा योंग ।
अर्जुन के सतगुरु प्रभुवर थे, अति उत्तम संयोग ।।
इंद्रिन से ही रूप ज्ञान हो, इन्द्रियातीत नही जाने ।
मूढात्मा वह मनुज तब, दिव्य ज्ञान को जाने ।।
पुनर्जन्म से मुक्ति मिले, यह कैसे सम्भव होगा ।
विषय, क्रोध, मय छूटेगा, तब ही वह निर्मय होगा ।।
श्रवण मनन निदिध्यास व अनुभव, में जब होगा पूर्ण ।
ज्ञानरूप तप से पवित्र हो, होता जाय पूर्ण ।।
प्रभु से मांगे मोक्ष स्वर्ग, या कामार्थी बन जाये ।
जिसकी जैसी कामना, वैसी प्रभु से पाये ।।
देवगणों के आराधन से, मोक्ष नही मिलता है ।
मोक्ष नही मिलने से पुनि पुनि पुनर्जन्म खलता है ।।
सब कुछ प्रभु ने, फिर भी ईश्वर रहे अकर्ता ।
जो जानेगा ऐसे प्रभु को, बन्धन में नहि पड़ता ।।
आत्मस्वरूप प्रभु का जी कि, इन्द्रियातीत कहलाता ।
बिना प्रत्यक्ष ज्ञान के दुर्लभ, इन्द्रिय गम्य नही भ्राता।।
उक्त ज्ञान मिलता नही जब तक, बन्धन कर्म न छूटे।
केवल कर कर्तव्य ज्ञानमय, जब तक प्राण न छूटे ।।
बड़े - बड़े विद्वान न जाने, क्या है कर्म अकर्म।
और विकर्म जानना होगा, बढे नही दुष्कर्म ।।
केहि विधि जाने कर्मा कर्म , अकर्म कर्म है मूढ़ ।
केवल ढोंग अकर्म में, कर्म करे वह मूढ़ ।।
बुद्धिमान, ज्ञानी योगेश्वर महापुरुष भरपूर ।
उनका कर्म अकर्म बने पुनि, रह माया से दूर ।।
जो करता है कर्म त्याग, मन विषयों में भरपूर ।
वह तो है अकर्म का ढोंगी, योंग - ज्ञान से दूर ।।
पूर्ण आत्मज्ञानी ही जग में, पण्डित है कहलाता ।
बिन इच्छा का कर्म करे, संकल्प न मन में लाता ।।
ज्ञानामी से भस्म कर्म, संतुष्ट न आश्रय आशा ।
कर्म कि होहि स्वरूपहिं चीन्हे ज्ञान न मोह तमाशा ।।
रहता सदा अकर्मी वह, कर्तव्यो में भी रमकर ।
उसका मन वश में रहता है, निज स्वरुप में जमकर ।।
व्दंद, व्देष और जीत विफलता, व्यापे नही विकार ।
सब है कर्म ब्रहृमय उसका, परिहितार्थ सब कार्य।।
हव्य , होम और अग्नि सभी कुछ, सबके सब है ब्रम्ह।
जब तक ज्ञान प्रत्यक्ष न होता, रमता रहता भ्रम।।
केवल श्रवण मनन करने से, भाव न आवे पूर्ण।
कर्म के संग ब्रम्ह मिल जावे, ब्रम्ह मिले तब पूर्ण।।
यज्ञ भेद कहते है प्रभुवर, जैसे देव का पूजन।
आत्मस्वरूप प्रत्यक्ष जानने से ही होता पूरन।।
यज्ञ ही है इंद्रिन का संयम, अन्तर्मुखी बनाकर।
इन्द्रिय अग्नि में शब्द होम हो, अंतर्ज्योति जगाकर।।
ज्योतिमंडल में अनहद ध्वनि है, शब्दों की आहुति।
अन्य विषय भी जो आते है, उन सबकी आहुति।।
इन्द्रिन का सब कर्म और सब प्राणों का व्यापार।
चेतन धार सिमट कर जलते, ज्ञान - डीप उजियार।।
भस्म हुए सब कर्म, विषय, यह योगाग्नि का तेज।
आत्म संयमी होता पूरा, साधक सबल, सतेज।।
द्रव्य दान का यज्ञ बना है, परोपकार के खातिर।
योगाभ्यास पठन - पाठन, तप करते यज्ञ की खातिर।।
प्राण और अपान वायु को, एक दूजे में होये।
प्राणायाम निरत योगिसन, प्राणवायु ही होये।।
द्रष्टियोंग में, सुखमन में थिर हो, यह होम सुलभ है।
या संयम भोजन में कर, नासाग्र ध्यान भी शुभ है।।
इंद्रिन के चेतन धारो को, द्रष्टिकोण एकत्र करे।
कमेन्द्रिय चेतन धारो को, द्रष्टियोंग एकत्र करे।।
ज्ञानेन्द्रिय चेतन धारो, बिंदुध्यान एकत्र करे।
चेतन धारो के प्राण रूप को, प्राणरूप में होम करे।।
आहार का संयम करने से ही, यह अभ्यास सुगम होगा।
नेत्रों की चेतन धारो, बिंदु पर ही संयम होगा।।
प्राणों में प्राण समा जाते, जब एक बिंदुता आती है।
अति बिरले कोई करता है, विरले गुरुमुख को आती है।।
इस भांति जो यौगिक यज्ञ बने तो ब्रम्ह अग्नि लख जाते है।
परमात्म ब्रम्ह को पा प्रत्यक्ष, पूर्ण आत्मज्ञान पा जाते है।।
अन्याय यज्ञ सब आहुति वन, ब्रम्हाग्नि में स्वाहा होते है।
तब याज्ञिक कर्म रहित होता, तब अहं भी स्वाहा होता है।।
अपने स्वरूप को जब चीम्हे, कर्ता भी अकर्ता बनते है।
बंधन कर्मो का कट जाये, सब पाप भस्म हो जाते है।।
यज्ञो से बचा हुआ अमृत, तो ब्रम्ह रूप हो जाता है।
परमार्थ से बचा हुआ धन भी, सब ब्रम्हरूप हो जाता है।।
है ब्रम्ह सनातन सुखकारी, बिन यज्ञ है, यह सब दुःखकारी।
परलोक में सुख और मोक्ष कहाँ, जब यह जग ही हो दुःखकारी।।
द्रव्य यज्ञ से ज्ञानयज्ञ की, महिमा श्रेष्ठ महान।
ज्ञान यज्ञ में कर्म भस्म हो, यही शास्त्र परमान।।
यह ज्ञान नही बौद्धिक केवल, कर श्रवण मनन निदिध्यासन।
अनुभूत समाधि पूरन करके, अपरोक्ष ज्ञान पावे मन।।
निदिध्यास का नित अभ्यास करे, ब्रम्हाण्ड सभी अपने भीतर।
लख जाता है जब निज स्वरूप, परमात्मा रूप भी है भीतर।।
यह ज्ञान यज्ञ की सीमा है, अभ्यासी जीवनमुक्त बने।
पाकर निर्वाण ब्रम्ह सुखकर, दुःख पुनर्जन्म कट जाये घने।।
दुःख जन्म - मरण का अति दुष्तर, वह सहन नही हो पाता है।
धरती पर आवे तब दुःख हो, जावे तो अति दुःख पाता है।।
पापी हो या अति पापी हो, यह ज्ञान की नौका पार करे।
ज्ञानाग्नि में पाप भस्म होते, यह अति भावन है ज्ञान अरे।।
केवल श्रवण मनन करने से, पूर्ण ज्ञान नहि होता।
निदिध्यासन का अंत करे तो, यज्ञ पूर्ण हो जाता।।
श्रध्दावान जितेन्द्रिय बने, वह ईश्वर भक्त महान।
परम शांति पाता है तक्षण, यह तो ज्ञान महान।।
अज्ञानी श्रध्दाविहीन हो, जो संशयमय रहता।
वह विनिष्ट होता है जीवन सदा कष्टमय रहता।।
इसीलिए निसिध्यासन करके, साधन करे अनन्त।
अपने भीतर ज्ञान पूर्ण हो, कृपा करे भगवन्त।।
जो योगीजन कर्म करे, और बनते जाये अकर्मी।
संशय रहित मनुज सुखमय हो, कर्म न बंधन कर्मी।।
ज्ञान खड्ग को कर में लेकर, करे योंग अवलम्बन।
अति कुशल हो कर्तव्यो में, करे कर्म सम्पादन।।
हो निलिप्त कर्म करना ही, इस जीवन में श्रेष्ठ।
जो जीवन कर्तव्य छोड़ दे, उसका जीवन भ्रष्ट।।
हुआ समाप्त चतुर्थ अध्याय।
प्रभुवर हरदम रहे सहाय।।
गुरुवर हरदम रहे सहाय ।।।
हव्य , होम और अग्नि सभी कुछ, सबके सब है ब्रम्ह।
जब तक ज्ञान प्रत्यक्ष न होता, रमता रहता भ्रम।।
केवल श्रवण मनन करने से, भाव न आवे पूर्ण।
कर्म के संग ब्रम्ह मिल जावे, ब्रम्ह मिले तब पूर्ण।।
यज्ञ भेद कहते है प्रभुवर, जैसे देव का पूजन।
आत्मस्वरूप प्रत्यक्ष जानने से ही होता पूरन।।
यज्ञ ही है इंद्रिन का संयम, अन्तर्मुखी बनाकर।
इन्द्रिय अग्नि में शब्द होम हो, अंतर्ज्योति जगाकर।।
ज्योतिमंडल में अनहद ध्वनि है, शब्दों की आहुति।
अन्य विषय भी जो आते है, उन सबकी आहुति।।
इन्द्रिन का सब कर्म और सब प्राणों का व्यापार।
चेतन धार सिमट कर जलते, ज्ञान - डीप उजियार।।
भस्म हुए सब कर्म, विषय, यह योगाग्नि का तेज।
आत्म संयमी होता पूरा, साधक सबल, सतेज।।
द्रव्य दान का यज्ञ बना है, परोपकार के खातिर।
योगाभ्यास पठन - पाठन, तप करते यज्ञ की खातिर।।
प्राण और अपान वायु को, एक दूजे में होये।
प्राणायाम निरत योगिसन, प्राणवायु ही होये।।
द्रष्टियोंग में, सुखमन में थिर हो, यह होम सुलभ है।
या संयम भोजन में कर, नासाग्र ध्यान भी शुभ है।।
इंद्रिन के चेतन धारो को, द्रष्टिकोण एकत्र करे।
कमेन्द्रिय चेतन धारो को, द्रष्टियोंग एकत्र करे।।
ज्ञानेन्द्रिय चेतन धारो, बिंदुध्यान एकत्र करे।
चेतन धारो के प्राण रूप को, प्राणरूप में होम करे।।
आहार का संयम करने से ही, यह अभ्यास सुगम होगा।
नेत्रों की चेतन धारो, बिंदु पर ही संयम होगा।।
प्राणों में प्राण समा जाते, जब एक बिंदुता आती है।
अति बिरले कोई करता है, विरले गुरुमुख को आती है।।
इस भांति जो यौगिक यज्ञ बने तो ब्रम्ह अग्नि लख जाते है।
परमात्म ब्रम्ह को पा प्रत्यक्ष, पूर्ण आत्मज्ञान पा जाते है।।
अन्याय यज्ञ सब आहुति वन, ब्रम्हाग्नि में स्वाहा होते है।
तब याज्ञिक कर्म रहित होता, तब अहं भी स्वाहा होता है।।
अपने स्वरूप को जब चीम्हे, कर्ता भी अकर्ता बनते है।
बंधन कर्मो का कट जाये, सब पाप भस्म हो जाते है।।
यज्ञो से बचा हुआ अमृत, तो ब्रम्ह रूप हो जाता है।
परमार्थ से बचा हुआ धन भी, सब ब्रम्हरूप हो जाता है।।
है ब्रम्ह सनातन सुखकारी, बिन यज्ञ है, यह सब दुःखकारी।
परलोक में सुख और मोक्ष कहाँ, जब यह जग ही हो दुःखकारी।।
द्रव्य यज्ञ से ज्ञानयज्ञ की, महिमा श्रेष्ठ महान।
ज्ञान यज्ञ में कर्म भस्म हो, यही शास्त्र परमान।।
यह ज्ञान नही बौद्धिक केवल, कर श्रवण मनन निदिध्यासन।
अनुभूत समाधि पूरन करके, अपरोक्ष ज्ञान पावे मन।।
निदिध्यास का नित अभ्यास करे, ब्रम्हाण्ड सभी अपने भीतर।
लख जाता है जब निज स्वरूप, परमात्मा रूप भी है भीतर।।
यह ज्ञान यज्ञ की सीमा है, अभ्यासी जीवनमुक्त बने।
पाकर निर्वाण ब्रम्ह सुखकर, दुःख पुनर्जन्म कट जाये घने।।
दुःख जन्म - मरण का अति दुष्तर, वह सहन नही हो पाता है।
धरती पर आवे तब दुःख हो, जावे तो अति दुःख पाता है।।
पापी हो या अति पापी हो, यह ज्ञान की नौका पार करे।
ज्ञानाग्नि में पाप भस्म होते, यह अति भावन है ज्ञान अरे।।
केवल श्रवण मनन करने से, पूर्ण ज्ञान नहि होता।
निदिध्यासन का अंत करे तो, यज्ञ पूर्ण हो जाता।।
श्रध्दावान जितेन्द्रिय बने, वह ईश्वर भक्त महान।
परम शांति पाता है तक्षण, यह तो ज्ञान महान।।
अज्ञानी श्रध्दाविहीन हो, जो संशयमय रहता।
वह विनिष्ट होता है जीवन सदा कष्टमय रहता।।
इसीलिए निसिध्यासन करके, साधन करे अनन्त।
अपने भीतर ज्ञान पूर्ण हो, कृपा करे भगवन्त।।
जो योगीजन कर्म करे, और बनते जाये अकर्मी।
संशय रहित मनुज सुखमय हो, कर्म न बंधन कर्मी।।
ज्ञान खड्ग को कर में लेकर, करे योंग अवलम्बन।
अति कुशल हो कर्तव्यो में, करे कर्म सम्पादन।।
हो निलिप्त कर्म करना ही, इस जीवन में श्रेष्ठ।
जो जीवन कर्तव्य छोड़ दे, उसका जीवन भ्रष्ट।।
हुआ समाप्त चतुर्थ अध्याय।
प्रभुवर हरदम रहे सहाय।।
गुरुवर हरदम रहे सहाय ।।।
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