Monday, December 16, 2019

स्त्री और स्पर्श

स्त्री और स्पर्श

मैं एक स्त्री हूँ,
हर पुरुष के स्पर्श की मंशा को पहचानती हु। 
और हर स्पर्श की व्याख्या करने में अब संकोच करू,
ऐसी अब मेरे देश की स्थिति नहीं, मुझे बोलना पड़ेगा। 
आज बेझिझक होकर उन स्पर्शों का स्पष्टीकरण करती हु। 

मेरे शीर्ष  को चूमते हुए बाबा ने,
मेरी सफलताओं की जब स्तुति की, 
वो स्पर्श उनका मेरे प्रति आश्वासन से परिपूर्ण था।
वो स्पर्श मेरा उनके प्रति कृतज्ञता से सम्पूर्ण था।
वो स्पर्श हम दोनों में आशा का आधार था।
वो स्पर्श में एक लगाव था, एक निष्ठा थी, सद्भाव था।
हाँ ! मैं इस स्पर्श का समर्थन करती हु। 

बाबुल का घर छोड़ चली जब, भाई  मेरा रोया था,
घर से बिदा कर मुझको,जाने कितनी रात ना सोया था।
कस कर मुझको गले लगाया, बोला बहना' सुखी रहना।
उस स्पर्श से मैं सुरक्षित  थी,
उस स्पर्श  में कितनी तृप्ति थी,
उस स्पर्श में कोई पाखण्ड ना था,
उस स्पर्श में कितनी भक्ति थी।
हाँ ! मैं ऐसे स्पर्श को हर जन्म की स्वीकृति देती हूँ।

मैं अपने पति का स्पर्श भी जानती हु,
उस स्पर्श में जीवन भर का समर्पण हैं,
उस स्पर्श में अनुराग है, प्रणय है,
उस स्पर्श में एक सुभगता है, प्रेम का बंधन है,
वो मात्र स्पर्श नहीं मेरे लिए,
वो प्रतिस्पर्श है। 
और इस स्पर्श के लिए मैं उत्सुक हूँ,
हाँ ! मैं इस स्पर्श को मंजूरी देती हूँ.....

कुछ कंधे रोने के लिए ऐसे भी है,
जो ना मेरे बाबा के है, ना भाई के,
कुछ अश्रुओं को पोछने वाले हाथ ऐसे भी है,
जो ना मेरे पति के है, ना मेरे प्रेमी के हैं,
ऐसे कुछ मित्र है मेरे, जो की पुरुष है लेकिन,
मैं उनके स्पर्श से भलीभाँती परिचित हूँ,
उनके स्पर्श में एक आदर है,
उन स्पर्शों में सत्कार है, सम्मान है,
उन स्पर्शों का एक दायरा है,
उन स्पर्शों को अपनी हद मालूम है,
हाँ ! मैं ऐसे मित्रों के स्पर्श को रज़ामंदी देती हूँ.....

उस स्पर्श से मैं विचलित हो जाती हूँ,
उस स्पर्श से मैं टूट  जाती हूँ।
जिस स्पर्श में विवशता हो, जबरदस्ती हो,
जिस स्पर्श में लाचारी हो, बंधन हो।
जो स्पर्श मुझे मेरी अनुमति , सहमति , स्वीकृति के बिना मिले,
उन स्पर्श से मैं खंडित हो जाती हूं

मैं एक स्त्री हूँ,
हर पुरुष के स्पर्श की मंशा को पहचानती हूँ.....

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