SREE GEETA YOG PRAKASH
श्री गीता योग प्रकाश - अध्याय 3
कर्म - योग
कर्म बिना नर कभी न रहता, नर का बही स्वभाव ।
राग - व्देष संग में रहने से , सुख क सदा अभाव ।।
जो कर्तव्य मात्र करता है, लोभ लाभ को तजकर ।
उसका लाभ अनंत गुणा है, रक्षक प्रभु को मजकर ।।
बिना लोभ उपयुक्त कर्म से, सदा मोक्ष अधिकारी ।
यही कर्म है कर्म - योग, जिसकी महिमा अति भारी ।।
चंचल गति वाला मन भागे, तू मत जाय शरीर ।
धीरे - धीरे मन को साधो, प्रभु हरेगे पीर ।।
जो जग का सब कर्म तजोगे, पर हितार्थ सब कर्म ।
बिना कर्म बैठे रहना भी, है भारी दुष्कर्म ।।
जनक, कृष्ण, अवतार सभी, सब संतो को भी देखा ।
सबने कर्म निभाया अपना, रख आदर्श अनोखा ।।
कर्मेन्द्रिय से कर्म करे, संयमित रहे मन वशकर ।
क्या यह सुगम महा है, इस माया प्रपंच में फंसकर ।।
क्या यह सुख - साम्राज्य मिलेगा, बस मन को समझाये ।
नही नही यहाँ अगम राह है, सुगम सब गुरु पाये ।।
सतगुरु जी बतलाते है, इस मन घोड़े का खूंटा ।
कैसे संध्या ध्यान बने, जिस बिन जग का सुख रूठा ।।
बिना भेंट पाये सतगुरु से, रहे मांग अनबूझा ।
आत्मज्ञान का काम वहन का, कर्मयोग की सिध्दि।
क्या करिये अभ्यास अगर, अज्ञात रहे वह बुध्दि।।
करी त्रिकाल संध्या निज मन में, भक्ति ज्ञान पनपावे ।
आत्मज्ञान से ही मन वश हो, जो सतगुरु मिल पावे ।।
इसमें ही कल्याण जगत का, इसके बिन जग सूना ।
यह मारग जो छोड़ दिया तो, दुःख सब नित - नित दूना ।।
इसके बिन परमार्थ न जागे, स्वास्थ्य जग सुख खाये।
ताम - झाम सब कुछ छूंछा है, सब भीतर अकुलावे ।।
हुआ समाप्त तृतीय अध्याय ।
प्रभुवर हरदम रहे सहाय ।।
गुरुवर हरदम रहे सहाय ।।।
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